देश को जरूरत है 77,664 जजों की
|भारतीय न्याय प्रणाली की विश्व में अच्छी साख है, लेकिन यह अपने ही देश में अपनी ही जनता का विश्वास खोती जा रही है। देश में शिक्षा व जागरूकता में वृद्धि होने से समस्याओं के हल के लिए अधिक नागरिक अदालतों की शरण में आने लगे हैं और मुकदमों की संख्या बढ़ी है। मुकदमों की संख्या वृद्धि से निपटने में हमारी न्याय प्रणाली अक्षम सिद्ध हो रही है। इस का सीधा नतीजा यह हुआ है कि अधिकांश अदालतें मुकदमों से अटी पड़ी हैं। मुवक्किल अदालतों के चक्कर काटते रहते हैं, मुकदमों में तारीखों पर तारीखें पड़ती रहती हैं, पर उन के फैसले नहीं हो पाते।
20 दिसम्बर को भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री के.जी. बालाकृष्णन् ने मुम्बई में एक समारोह में बताया कि तीन करोड़ अस्सी हजार से अधिक मुकदमें देश की विभिन्न अदालतों में लम्बित हैं, जिन में 46 हजार से अधिक सुप्रीम कोर्ट में, 37 लाख से अधिक हाई कोर्टों में तथा ढ़ाई करोड़ से अधिक निचली अदालतों में फैसलों के इन्तजार में हैं। मुकदमों का निपटारा करने का कर्तव्य हमारा (न्यायपालिका का) है, हमने पिछले दो सालों में निपटारे की गति को 30 प्रतिशत बढ़ाया है। लेकिन दायर होने वाले मुकदमों की संख्या भी बढ़ी है जिस से लम्बित मुकदमों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। उन्होंने बताया कि वर्तमान में केवल 14000 जजों के पद स्वीकृत हैं जिन में से केवल 12000 जज कार्यरत हैं 2000 जजों के पद जजों के चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया में खाली पड़े हैं। 500 मुकदमों के निपटारे के लिए हमें एक जज की जरूरत है। इस तरह लम्बित मुकदमों के निपटारे के लिए हमें 77,664 जजों की आवश्यकता है। हमें ज्यादा अदालतें और ज्यादा बजट चाहिए।
मुख्य न्यायाधीश के ताजा कथन से हमारी न्याय प्रणाली की बेचारगी प्रकट होती है, और एक नंगी हकीकत सामने आती है। हमारे देश में मुकदमें निपटाने के लिए जितनी अदालतों की आज जरुरत है, उस की केवल 16 प्रतिशत अदालतें हमारे पास हैं। हम उन से ही काम चला रहे हैं। ऐसी हालत में शीघ्र न्याय की आशा किया जाना व्यर्थ है ही न्याय की गुणवत्ता भी बुरी तरह प्रभावित हो रही है।
हमारी न्यायप्रणाली की सारी समस्याओं और फैसलों में देरी, वकीलों की हड़तालें, भ्रष्टाचार आदि बीमारियों की जड़ यहीं है। न्याय प्रणाली को साधन मुहय्या कराने की जिम्मेदारी केन्द्न और प्रान्तीय सरकारों की है जिसे पूरा करने में वे बुरी तरह असफल रही हैं।
सरकारों की जनता के प्रति जिम्मदारियों का राजनीति में बहुत उल्लेख होता है। जनता को आकर्षित करने वाले मुद्दों को राजनैतिक व चुनाव घोषणा पत्रों में स्थान भी मिलता है लेकिन जनता को सीधे प्रभावित करने वाले न्याय के मुद्दे पर न तो कोई राजनैतिक दल बात करता है और न ही करना चाहता है, चुनाव घोषणा पत्र में स्थान पाना तो बहुत दूर की बात है। अनजान कारणों से हर कोई इस मुद्दे से बचना और इसे जनता से छुपाना चाहता है। हमारे मुख्य न्यायाधीश इस ओर संकेत तो करते रहे मगर उसे खुल कर कभी भी सामने नहीं लाए।
यह पहला मौका है जब मुख्य न्यायाधीश ने खुल कर इस हकीकत को बयान किया है, या उन्हें करना पड़ा
है। क्योंकि अब हालात ऐसे हैं कि स्थिति को नहीं सम्भाला गया तो न्याय प्रंणाली पूरी तरह चरमरा जाएगी और घोर अराजकता हमारे सामने होगी।
Dinesh ji
kriya ki pratikriya mein agar nyay shamil ho to us jaisa ssaf aaina aur koi nahin hota chehra dekhne ke liye.
bahut informative upalabdhi rahi yeh.
Devi
अरे भाई साहब आप भी गजबै बात करते हैं। न्याय व्यवस्था तो हई है। फैसले भी होते हैं। कभी-कभी मरने के पहले न्याय मिल जाता है और कभी बाल-बच्चे न्याय पा जाते हैं। खुश हो लेते हैं कि हमरे बाप-दादों पर कभी अत्याचार हुआ था।
इधर मधुकर जी एक अखबार निकाल रहे हैं- आज समाज। पता नहीं उनके दिमाग में क्या खुराफात सूझी कि उसमें एक पेज मजदूरों को भी समर्पित कर दिया कामगार समाज (पता नहीं कौन पढ़ेगा और अगर पढ़ेगा तो उनकी सुनने या उनके बारे में सोचने वाला कौन है?)। एक खबर आई और मैने उसे प्रमुखता दे दी। शीर्शक दिया न्याय के बाद भी न्याय की आस। दिल्ली का एक मजदूर जनरल बोगी में टिकट लेकर जा रहा था घर। उसे आसनसोल में टीटी ने पकड़ा और फाइन ली। ३६ घंटे तक थाने में भी बंद रखा। फाइन देने पर ही छोड़ा। मामला न्यायालय में पहुंचा। तीन सदस्यों की पीठ ने फैसला दिया औऱ विभाग पर ६० हजार रुपये जुर्माना भी कर दिया। लेकिन पीड़ित आज भी भटक रहा है। रेल विभाग उसे मुकदमें लड़ा रहा है। बनारस में भी एक बार ऐसा हुआ था। वसूली के खिलाफ आवाज क्या उठी, रेल विभाग के कर्मचारियों ने जबर्दस्त तांडव किया। यहां तक कि सूचना वाले माइक से एनाउंस किया कि पत्रकारों ने रेल कर्मियों पर हमला कर दिया है। हम लोग डरे सहमे दो घंटे तक स्टेशन पर पड़े रहे। प्रत्यक्ष गवाह था मैं। बड़े-बड़े सूरमा पत्रकार आए। रेल विभाग की दलाली करने वाले पत्रकार भी। लेकिन किसी की हिम्मत नहीं थी कि हाथ में फट्ठी लेकर रेल यूनियन जिंदाबाद के नारे लगा रहे कर्मचारियों के सामने कह दें कि मैं पत्रकार हूं। सारा कुछ हुआ वहां के स्टेशन मास्टर के सामने। हिंदुस्तान टाइम्स के राजदान जी भी थे। सामान्यतया वे छोटे पत्रकारों को चाईं ही समझते हैं और होते भी हैं चाईं। लेकिन वहां का दृष्य देखकर वे स्तब्ध थे। खबर लिखी। हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर बाटम स्टोरी आई। यानी कि महत्वपूर्ण स्थान पर। लेकिन मामला आया-गया हो गया।
कहां है कानून व्यवस्था? कहां है न्याय? और कहां हो रहा है उसका पालन?
बाला जी ने अगर स्वीकार किया है तो स्वागत योग्य है। होना भी चाहिए। लेकिन उनके उस साक्षात्कार को भी याद करना होगा। एक इलेक्ट्रानिक चैनल पर मुख्य न्यायधीश बनने के बाद पहला इंटरव्यू आ रहा था। रिपोटॆर ने पूछा कि क्या न्यायधीश को लोकपाल के दायरे में आना चाहिए? उन्होंने कहा कि कोई भी खुद्दार जज यह स्वीकार नहीं करेगा कि लोकपाल उसकी जांच लोकपाल करे। अरे भइया.. कोई खुद्दार नेता, खुद्दार प्रधानमंत्री, खुद्दार राष्ट्रपति, खुद्दार विधायक, खुद्दार सांसद और खुद्दार आम नागरिक ही क्यों स्वीकार करे लोकपाल को?
सब ऐसे ही चल रहा है। सदियों से चल रहा है और लाठी के बल पर चल रहा है। अब तो यही लगता है कि ऐसे ही चलता रहेगा।
लंबित मुकदमों की बड़ी तादाद से निपटने और तेजी से मुकदमे निपटाए जाने के लिए जजों की नियुक्ति किए जाने के अलावा कुछ अन्य कदम उठाए जाने बहुत जरूरी हैं –
1. जो केस कंपाउडेबल हों, यानी जिनमें दोनों पक्षों के बीच आपसी समझौते के द्वारा समाधान की गुंजाइश हो, उन्हें न्यायालय से बाहर हल किए जाने पर जोर देना। इसके लिए अल्टरनेटिव डिस्पुट रिजोल्यून यानी विवाद के समाधान के वैकल्पिक तरीकों यानी आर्बिट्रेशन, मिडिएशन, काउंसिलिएशन, लोक अदालत आदि उपायों का सहारा लेना।
2. ग्रामीण इलाकों के लिए बड़ी संख्या में मोबाइल अदालतों या कैंप अदालतों की शुरुआत करना। न्याय पाने और विवाद के निपटारे के लिए खुद अदालतों को ही चलकर ग्रामवासियों के पास आना चाहिए और मौका-ए-वारदात पर ही मामले का निपटारा हो जाना चाहिए। गवाह, सबूत, पुलिस, पड़ोसी, पंचायत, और विवाद का मुद्दा सभी स्थानीय और एक साथ नजर के सामने होंगे तो मामला निपटने में देर नहीं लगेगी। मोबाइल ग्राम न्यायालयों की स्थापना की दिशा में सरकार ने हाल ही में एक निर्णय लिया भी है।
4. अदालत में किसी मुकदमे को एडमिट करते समय ही उसके निपटान की आखिरी तारीख मुकर्रर कर दी जाए। जजों की पदोन्नति इस आधार पर हो कि उन्होंने नियत समय सीमा के भीतर कितने प्रतिशत मामलों का निपटारा किया। हर कैटेगरी के मामले के निपटान के लिए समय-सीमा पहले से निर्धारित होनी चाहिए।
5. अपराधों की जाँच के लिए पुलिस के भीतर अलग सेल होना चाहिए, जो सीधे अदालतों के नियंत्रण में हो। केवल क़ानून-व्यवस्था की देखरेख करने वाली पुलिस कार्यपालिका के नियंत्रण में हो। पुलिस बल के बीच इस तरह के वर्गीकरण का सुझाव पुलिस सुधारों के लिए भी बहुत जरूरी है।
6. क़ानून और संविधान की बुनियादी बातों के बारे में जनता को जागरूक किया जाना चाहिए। यह सरकार की जिम्मेदारी है कि जो क़ानून जनता के लिए विधायिका ने बनाए हैं, उनकी सरल भाषा में जानकारी भी जनता को प्रदान करने की व्यवस्था करे। क्योंकि क़ानूनों के बहुत-से उल्लंघन जानकारी के अभाव और नतीजों के बारे में अनभिज्ञता के कारण होते हैं।
आपने बहुत सही समस्या की तरफ ध्यान आकर्षित कराया। दो काम किये जा सकते हैं:
१. न्याय प्रणाली में टेक्नॉलाजी का अधिकादिक प्रयोग।
२. सरकारी विभागों की गलती निकलने पर इण्डीवीजुअल की गलती पिनप्वाइण्ट करते हुये उसपर दण्ड बढ़े। व्यक्तिगत रूप से जब कर्मचारीअधिकारी दण्डित होंगे तो प्रशासनिक कसावट आयेगी और मामले कम होने लगेंगे।
बाकी न्यायधीशों की संख्या तो बढ़नी ही चाहिये।