न्याय का उद्देश्य : विद्रोह को रोकना
|न्याय-वध (4) पर मायर्ड मिराज के घुघूती बासूती की छोटी सी टिप्पणी मिली :
‘कुछ लोग इसीलिए मुकदमे नहीं करते‘
यह हमारी न्याय व्यवस्था की चरम परिणति है। न्याय प्रणाली सदैव से राज्य व्यवस्था का अभिन्न अंग रही है और राज्य रहा है शासक वर्गो का शासित वर्गो पर अपनी हुकूमत बनाए रखने का हथियार। जब से मनुष्य ने विकास के दौरान जांगल और बर्बर अवस्था से होते हुए सभ्यता के युग में प्रवेश किया है। तभी से राज्य कायम है। राज्य की उत्पत्ति का मूल उद्देश्य ही सक्षम मनुष्यों का अन्य मनुष्यों पर अधिकार कायम रखना था। सभ्यता का यह दौर दास युग, सामंती युग से होता हुआ आधुनिक जनतन्त्र तक आ पंहुचा है। पर समाज का मूल नियम नहीं बदला है।
प्रारंभ में कबीले का मुखिया जो कबीले के सभी अन्तिम निर्णय करता था, वही कबीले के सदस्यों के आपसी विवाद भी निपटाता था। दास युग तक दासों को उस के पास फरियाद करने का कोई अधिकार नहीं था। लेकिन सामंती युग में जब दासता नहीं रही तो शासितों को राजा के सामने फरियाद का अधिकार तो मिल गया था, लेकिन उस के सामाजिक, आर्थिक अधिकार कानूनों व नियमों से सीमित हो गए थे। साथ-साथ शासक वर्गों के लोगों के लिए भी कुछ नियम-कानून अस्तित्व में आ गए थे।
इस सामंती युग में भारत में सबसे पहला साम्राज्य की स्थापना की पटकथा रचने वाले और उस के निर्देश विष्णु गुप्त ‘चाणक्य’ ने अपनी अर्थशास्त्र में इस बात को स्पष्ट करते हुए लिखा था
” राजा को न्याय करना चाहिए जिस से उसके विरुद्ध विद्रोह नहीं हो”
आज हम सभ्यता के विकास की उस मंजिल पर हैं जिसे जनतंत्र कहा जाता है। पर न्याय प्रणाली के लिए यह बात आज भी उतनी ही सही है। आज भी राज्य का लेना-देना न्याय प्रणाली से उतना ही है जिस से उस के विरूद्ध आवाज न उठे और जनतंत्र में आवाज की आजादी के चलते उठे भी तो उतनी ही उठे, जिस से विद्रोह नहीं हो। कुल मिला कर न्याय का तंत्र एक व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह के संगठन को रोके रखने का यंत्र मात्र है।
इस के बावजूद जनतंत्र की न्याय प्रणाली एक हद तक लोगों को न्याय प्रदान करती है। न्याय प्राप्त करने की मात्रा न्यायार्थी की आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक हैसियत से तय होती है।
न्याय प्रणाली के इस सच को सामने लाना ही तीसरा खंबा का उद्देश्य है।
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