न्याय में देरी की समस्या पूरे देश की है और इसका हल राजनैतिक है।
|समस्या-
बिकास कुमार ने गया, बिहार से पूछा है-
मेरे पापा ने सिविल केस किया था 2012 में, जिसमें और 5 भाई जिन पर केस हुआ था वह 4 सालों तक केस में नहीं आया। एक दिन बोलता है कि हमें किसी केस की जानकारी नहीं थी हमें कॉल फॉर रिटर्न के लिए समय दिया जाए। जबकि उसका वकील हमेशा पीठ पीछे जाकर इंक्वायरी लिया करता था। अचानक ऑर्डर के डेट पर एक भाई उपस्थित हो गया जिसमें बयान तैयारी के लिए 90 दिन का समय मांगना गया और उसने केस को फिर से 8 महीना कोर्ट में लंबा समय लेने का काम किया। उसके विरुद्ध भी ऑर्डर से पहले फिर एक बार हाजिरी दे दिया। जिसमें कोर्ट ने फिर से 3 महीने के टाइम पिटिशन दे दिया। आप से मेरा एक ही सवाल है इसमें सब संपूर्ण भाइयों को एक साथ कैसे उपस्थिति कराया जाए। नहीं तो हमें कोई ऐसा रास्ता बताइए जिससे यह सभी भाई जो अनुपस्थिति हैं उसे कोर्ट के माध्यम से उपस्थिति कराया जाए। आपसे विनम्र अनुरोध है कि हमें कोई रास्ता बताया जाए आज 6 साल से परेशान हैं। मैं चाहता हूं सिविल केस में कुछ बदलाव होने आवश्यकता है इसके लिए मैं क्या करूं और कहां जाऊँ? जिससे बदलाव हो सके। सिविल केस में मानव को शोषण किया जाता है, जो गरीब है उसके लिए सिविल केस नहीं है। जो सिविल केस 1 साल में खत्म हो जानी चाहिए उसे हमारे सरकार 20 सालों तक ले जाती है।
समाधान –
आप बहुत सही निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि हमारी सरकार एक साल में निपटने वाले सिविल केस को 20 सालों तक ले जाती है। हमें इस के कारणों तक जाना पड़ेगा। इस का बड़ा कारण यह है कि हमारे देश में अदालतों की संख्या आबादी के हिसाब से बहुत कम है। हमारा देश सब से कम जज-आबादी औसत वाले देशों में से एक है। सब से ताजा उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक दस लाख आबादी पर अमरीका में 107, कनाडा में 75, इंग्लेंड में 51 और आस्ट्रेलिया में 41 जजों का अनुपात है, जब कि भारत में 10 लाख की आबादी पर केवल मात्र 18 जज हैं। उसी हिसाब से अदालतें हैं। हमारी प्रत्येक अदालत पर अमरीका के मुकाबले पाँच गुना मुकदमों का बोझा है। सभी मुकदमों में लगातार सुनवाई होना जरूरी है। इस कारण से अदालतों में तीन-चार माह में एक पेशी होती हैं। उस पेशी पर भी काम नहीं होता बल्कि तारीख हो जाती है क्यों कि अदालत की सूची में जितना काम वह अदालत कर सकती है उस से दस गुना तक काम लगा होता है। अदालत के बहुमूल्य समय में से एक तिहाई समय तो अधिकांश मुकदमों की तारीख बदलने में जाया हो जाता है। वकीलों, जजों, पेशकारों और पक्षकारों के बीच इसी बात पर बहुत हुज्जत होती है कि पेशी ज्यादा लंबी या छोटी दी जाए। यदि यह नियम कर दिया जाए कि जब तक अदालत में दो साल से अधिक पुराने मुकदमे न निपट जाएँ तब तक नए मुकदमे की सुनवाई न की जाए तो नये मुकदमें में पेश होने के बाद पाँच दस साल तक सुनवाई ही शुरू न हो। असल में सबसे विपन्न न्यायपालिका वाले देश हैं। एक वर्ग-विभाजित पुरुष-प्रधान समाज में जो हालत गरीब की जोरू की होती है वही हालत आज हमारे देश की न्यायपालिका की है।
जब किसी बस में सीटें 50 हों और यात्री 150 होती हैं तो लोग सीट पाने के लिए कंडक्टर को रिश्वत देंते हैं, कोई सिफारिश लगाता है, कुछ बस शुरू होने के कई घंटे पहले ही बस के पास जा खड़े होते हैं ओर बस का दरवाजा खुलने का इंतजार करते हैं। जब दरवाजा खुलता है तो तब तक वहाँ आए लोग दरवाजे की ओर लपकते हैं और आपस में घमासान करते हैं। बस की सीटें भर जाती हैं तो लोग खड़े होने के लिए अच्छी जगह तलाशते है। खड़े होने की जगह नहीं रहती है तो बस की छत पर भी चढ़ जाते हैं। यही हालत हमारी न्यायपालिका की है। वहाँ जल्दी की तारीख के लिए लोग जज से प्रार्थना करते हैं, पेशकारों को रिश्वत देते हैं। फिर भी मामला कई सालों तक नहीं निपटता है तो हाईकोर्ट जा कर निर्देश करा लाते हैं कि मुकदमे को साल या छह माह में निपटाया जाए।
मैं जिन अदालतों में प्रेक्टिस करता हूँ उन में से एक में 1985 में दायर हुए मामले भी अभी लंबित हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल एक मुहिम चलाई थी उस में दस साल से पुराने मुकदमे एक साल में निर्णीत करने का लक्ष्य तय किया गया। पर यह नहीं हो सका। फिर इस अदालत के लिए 25 साल से अधिक मुकदमे निपटाने का लक्ष्य मिला। तो हालात ये हैं कि यदि कोई मुकदमा 1995 में दायर हुआ था और वह अन्तिम बहस हो कर निर्णय के लिए है तो भी जब तक 1994 तक दायर हुए मुकदमे नहीं निपट जाते उस में बहस का नंबर न आएगा। जैसी कि इस अदालत की स्थिति है हो सकता है 1994 में दायर मुकदमे में बहस होने का नंबर एक साल बाद भी आ जाए। लेकिन जो मुकदमा 2012 में दायर हुआ है और उस में सारा काम हो चुका है बस आखिरी बहस होनी है और फैसला होना है उसे तो कम से कम 8-10 साल केवल अंतिम बहस होने का इंतजार करना पड़ सकता है।
हमारी न्यायपालिका को इस दुर्दशा से निकालने का सब से पहला उपाय यही हो सकता है कि हम जजों और अदालतों की संख्या बढ़ाएँ। कम से कम हर साल जजों की कुल संख्या के दस प्रतिशत जज अवश्य बढ़ाए जाएँ। वर्तमान जजों की संख्या में जितने जज हर साल रिटायर होने वाले हों जोड़ कर जो संख्या आए उतने जज हर साल भर्ती किए जाएँ। इस से हम दस साल बाद एक पर्याप्त जज संख्या प्राप्त कर सकते हैं। जजों के साथ साथ अदालतों की संख्या, इन्फ्रास्ट्रक्चर भी बढ़ाने होंगे तभी हम एक सक्षम न्यायपालिका प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन यह केन्द्र और राज्य सरकार को करना है, उस के लिए धन जुटाना है। आज सरकारें न्यायपालिका पर अपने बजट का 1% के लगभग खर्च करती हैं। इसे बढ़ा कर कम से कम 3% करना होगा। इस के लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति चाहिए। तो हमें इस तरह की राजनैतिक इच्छा शक्ति वाला राजनैतिक दल बनाना होगा। वर्तमान राजनैतिक दलों से तो यह होने से रहा।
अब आप के मुकदमे की बात की जाए। आपने जिस तरीके से अपने मुकदमे का वर्णन किया है, “काल फॉर रिटर्न” और “बयान की तैयारी” शब्दों का प्रयोग किया है, उस से लगता है कि आप को अदालत की प्रक्रिया की जानकारी नहीं है। काल फॉर रिटर्न कुछ नहीं होता, दोनों मामलों में जवाब देने के लिए समय दिया गया है जो कि मुकदमे का समन मिल जाने के बाद दिया जाना कानूनन जरूरी है। आप के मुकदमें में आप के वकील और आप की भी गलती रही है। किसी भी दीवानी मुकदमे में सब से पहला काम विपक्षी पक्षकारों को दावे के समन की तामील का होता है। यह तामील कराने में यदि वकील और पक्षकार रुचि लें तो यह काम दो-तीन पेशी में हो जाता है। तामील होने के बाद अधिकतम 90 दिनों में जवाब पेश करना जरूरी है। यदि कोई पक्षकार अनुपस्थित हो जाए तो उस के विरुद्ध एक तरफा सुनवाई की जा कर मुकदमे में निर्णय हो सकता है। हमारे सभी मुकदमों में 2-3 पेशियों में तामील हो जाती है। जिन मामलों में विपक्षी पक्षकारों के पते सही नहीं होते और हमारा पक्षकार रुचि नहीं लेता उन में ही ऐसी देरी होती है जैसा आप के मामले में हुआ है।