प्रेस की आजादी : स्वतंत्रता का मूल अधिकार (4)
|प्रेस की आजादी
प्रेस की आजादी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक भाग है और इस कारण उसे निर्बाध रहना चाहिए। ऐसा कोई भी कानून जो प्रेस की स्वतंत्रता में बाधा पहुँचाता है वह असंवैधानिक होगा। यदि सरकार कोई भी ऐसा कानून बनाती है कि विचारों के प्रकाशन के पूर्व उन्हें सरकार से अनुमति प्राप्त करनी होगी तो यह कानून अवैध होगा। समाचार पत्र के प्रकाशन पर पूर्व-अवरोध (Pre-Censorship) नहीं लगाया जा सकता है। ब्रजभूषण बनाम दिल्ली राज्य (एआईआर 1950 सु.को. 129) के मामले में प्रेस की स्वतंत्रता पर पूर्ण अवरोध की संवैधानिकता का मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आया था। इस मामले में ईस्ट पंजाब पब्लिक सेफ्टी एक्ट-1947 की धारा 7 के अंतर्गत दिल्ली के चीफ कमिश्नर ने दिल्ली के एक साप्ताहिक पत्र के संपादक को यह निर्देश दिया था कि वे उन सभी प्रकार के सांप्रदायिक मामलों, पाकिस्तान से संबंधित समाचारों, चित्रों, और व्यंग्य चित्रों को जो सरकारी समाचार ऐजेन्सियों से प्राप्त नही हुए हैं प्रकाशित करने के पूर्व सरकारी परीक्षण के लिए भेजेंगे और पूर्व अनुमति प्राप्त करने के उपरांत ही उन्हें प्रकाशित करेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को असंवैधानिक घोषित करते हुए निर्णय दिया कि किसी भी समाचार पत्र पर पूर्व-अवरोध लगाना प्रेस की आजादी पर अनुचित प्रतिबंध है और पूरी तरह असंवैधानिक है।
इसी तरह वीरेन्द्र बनाम पंजाब राज्य (एआईआर 1957 सु.को. 896) के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट कह चुका था कि किसी भी समाचार पत्र को तत्कालीन महत्व के विषय पर अपने विचार प्रकट करने से रोकना वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर का उल्लंघन है। एक्सप्रेस न्यूज पेपर्स बनाम भारत संघ (एआईआर 1958) सु.को. 578) तथा रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य (एआईआर 1950 सु.को. 124) में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि किसी भी समाचार पत्र के संचालन पर पूर्व अवरोध असंवैधानिक है। भारत सरकार ने समाचार पत्रों के पृष्ठ बढ़ाने पर रोक लगाई तो यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा और साकल पेपर्स बनाम भारत संघ (एआईआर 1962 सु.को. 305) के मामले में यह निर्णय दिया कि समाचार पत्रों के पृष्ठ बढ़ाने पर रोक लगाना भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है क्यों कि इस से विचारों का प्रकाशन बाधित होता है। इसी तरह बैनेट कोलमेन एण्ड कंपनी बनाम भारत संघ (एआईआर 1973 सु.को. 106) में अखबारी कागज नीति और अखबारी कागज नियंत्रण आदेश 1962 में समाचार पत्रों की पृष्ठ संख्या पर प्रतिबंध को अनुचित बताया था।
विज्ञापनों को भी विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम माना गया है और उन पर रोक नहीं लगाई जा सकती है। लेकिन यदि विज्ञापन व्यापारिक प्रकृति के हैं तो उन पर यथोचित कर लगाए जा सकते हैं। हमदर्द दवाखाना बनाम भारत संघ (एआईआर 1960 सु.को. 554) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जादू के गुणों वाली औषधि के विज्ञापन पर प्रतिबंध लगाना उचित है क्यों कि यह निषिद्ध औषधियों के विज्ञापन और व्यापार व व्यवसाय से संबद्ध है।
लेकिन किसी प्रेस में औद्योगिक संबंधों को विनियमित करने वाले कानून जिन के अधीन प्रेस के कर्मचारियों के सेवा संबंधी मामले आते है कानूनों को प्रेस की आजादी और वाक् और अभिव्यक्ति की स्वत
ंत्रता में बाधक नहीं माना है। लेकिन प्रेस की स्वतंत्त्रता को संसदीय विशेषाधिकारों के अधीन माना गया है कोई भी प्रकाशक किसी सांसद या विधायक के भाषण का वह अंश प्रकाशित नहीं कर सकता जिसे स्पीकर के आदेश द्वारा संसद की कार्यवाही से निकाल दिया गया है।
प्रेस की तरह ही ब्लागिरी भी विचारों को अभिव्यक्त करने का एक माध्यम है। अगला आलेख इसी विषय पर होगा। (क्रमशः जारी)
अगले भाग का इंतजार रहेगा.
राम्राम
बहुत सुंदर जानकारी,लेकिन इस आजादी के बावजुद भी हमारे समाचार पत्र क्या आजाद है ? ओर अगर हां तो क्यो नही लिखते सच्ची खबरे ?
धन्यवाद
Saarthk shreenkhlaa….agli kadi ki pratiksha hai…
jaankaari
upyogi aur saarthak jaankaari dekar
aap samaaj ko aage badhaane me
mahtti yogdaan kar rahe hain
aapka abhinandan !
You Sir/Madam are the enemy of confusion evherweery!
यह पोस्ट भी जानकारियों से भरी है ,आभार .
एक महत्वपूर्ण आलेख है। पढते हुए ख्याल ब्लाग के बारे में आ रहा था, जिसे पोस्ट के नीचे प्रकाशित नोट ने शांत कर दिया। अब तो उसी आलेख का इंतजार है।