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बम्बई की पुलिस व्यवस्था, राजस्व मामले और विधि प्रवर्तन : भारत में विधि का इतिहास-72

म्बई में जिले के कलेक्टर को मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ प्राप्त थीं। उस के कार्यों में सहायता के लिए जिला पुलिस अधिकारी और ग्राम मुखिया नियुक्त थे। ग्राम मुखिया अभियुक्त को बंदी बना कर जिला पुलिस अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करता था। जिला पुलिस अधिकारी निर्दिष्ट सामान्य अपराधिक मामलों में आठ दिन तक के कारावास और पाँच रुपए तक का अर्थदंड आरोपित कर सकता था। ये उपबंध केवल भारतीय व्यक्तियों पर ही लागू थे। यूरोपीय व्यक्तियों को बंदी बना लेने पर उन्हें सुप्रीम कोर्ट को सुपुर्द किया जाता था जिसे इन मामलों में सुनवाई का अधिकार प्राप्त था।
क्त व्यवस्था को सुचारू बनाने के लिए 1828 में सहायक दंड न्यायाधीश को शक्तियाँ प्रदान करते हुए कलेक्टरों को निर्देश दिया कि वे अपराधिक मामलों को सहायक दंड न्यायालय के सुपुर्द करें।  1830 में दण्ड न्यायाधीशों की शक्तियाँ मजिस्ट्रेटों को प्रदान कर दी गई और उन्हें एक वर्ष तक का कारावास और जुर्माने का दंड अधिरोपित करने और सहायक मजिस्ट्रेटों द्वारा दिए जाने वाले दण्डों का पुनरीक्षण करने का अधिकार दिया गया। सहायक मजिस्ट्रेट को भी दंड देने का अधिकार दिया गया था लेकिन उस के द्वारा तीन माह से अधिक के कारावास का दंड दिए जाने पर उसे मजिस्ट्रेट के द्वारा अनुमोदन के उपरांत ही प्रवर्तित किया जा सकता था। जिला पुलिस अधिकारी 20 दिन तक के कारावास और 15 रुपए तक का अर्थदंड दे सकता था। 1831 में उप कलेक्टर को मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ प्रदान की गई थीं। 1833 में जिले के प्रमुख कस्बों के लिए संयुक्त पुलिस अधिकारी का पद सृजित किया गया। 1935 में गवर्नर को प्रमुख नगरों में सैन्य अधिकारियों को मजिस्ट्रेट नियुक्त करने का प्राधिकार दिया गया। 1852 में सपरिशद गवर्नर द्वारा गावों के मुखिया और पटेल को सामान्य प्रकृति के अपराधों का विचारण करने की शक्ति प्रदान की गई थी। 1855 के कानून के अंतर्गत सपरिषद गवर्नर को आवश्यक होने पर जिलों में संयुक्त पुलिस अधिकारी नियुक्त करने का अधिकार दिया गया।
भू-राजस्व मामले
1830 में सपरिषद गवर्नर को अधिकार दिया गया था कि वह अपने क्षेत्राधिकार के जागीरदारों और अन्य विनिर्दिष्ट व्यक्तियों को राजस्व मामलों के निपटारे के लिए न्यायाधिकारी नियुक्त कर सकता था। यदि पक्षकार उन न्यायाधिकारी से मामला निपटाने के इच्छुक नहीं होते थे तो वे मामले को जिला न्यायाधीश के न्यायालय में ले जा सकते थे। जिस के निर्णय की अपील सदर दीवानी न्यायालय को की जा सकती थी।
विधियाँ
न तमाम सुधारों के उपरांत भी मद्रास की भांति ही बम्बई में भी विधि व्यवस्था सुचारु और व्यवस्थित रूप ग्रहण नहीं कर सकी थी। आरंभ में बम्बई में  बंगाल की विधि व्यवस्था का अनुसरण नहीं किया जा कर मुस्लिम विधि को सर्वमान्य नहीं किया गया था और उस का उपयोग मुस्लिम पक्षकारों पर ही किया जाता था। हिन्दुओं के लिए उन की व्यक्तिगत विधि लागू की गई थी। जब कि ईसाई और पारसियों के मामलों में अंग्रेजी विधि का उपयोग किया जाता था।
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