बम्बई में न्यायिक व्यवस्था का विकास : भारत में विधि का इतिहास-70
|बम्बई में क्षेत्रीय प्रभुता का विस्तार शनैः शनैः हुआ। इस कारण से वहाँ न्यायिक समस्याएँ भी कम रहीं और न्यायिक व्यवस्था का विकास भी सीमित हुआ। 1793 में बंगाल में लागू की गई लॉर्ड कॉर्नवलिस की न्यायिक व्यवस्था को ही आधार बना कर 1799 में बम्बई में कंपनी न्यायालयों का गठन किया गया। बाद में समय समय पर इस व्यवस्था में सुधार किए गए। लेकिन यह व्यवस्था जटिल और अव्यवस्थित ही बनी रही। 1827 में इस व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन किए गए जिन के अंतर्गत सभी पुराने विनियमों को निरस्त कर नए विनियमों की कोड जारी की गई जिसे “बॉम्बे कोड” के नाम से जाना गया। 1827 की न्यायिक योजना के अंतर्गत बम्बई प्रेसीडेंसी के लिए सदर दीवानी अदालत और सदर निजामत अदालत स्थापित की गई तथा इन के अधीन जिला व अन्य अधीनस्थ न्यायालय गठित किए गए।
दीवानी न्याय प्रशासन
सदर दीवानी अदालत के लिए तीन या उस से अधिक न्यायाधीश नियुक्त किए जा सकते थे। यह अपील अदालत थी जो जिला दीवानी अदालतों के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुन सकती थी। इस अदालत को अधीनस्थ न्यायालयों के निरीक्षण का अधिकार भी दिया गया था। वह अधीनस्थ अदालत की किसी भी कार्यवाही के रिकॉर्ड को अपने यहाँ मंगा कर उचित आदेश पारित कर सकता था।
जिला दीवानी अदालतें प्रत्येक जिले में स्थापित की गई थीं। कंपनी का अनुबंधित कर्मचारी ही जिला न्यायाधीश हो सकता था। वह किसी भी मूल्य का मामला सुन सकता था। जिला न्यायालय 500 से 5000 रुपए मूल्य तक के मामलों की अपीले सुन सकता था। बम्बई में प्रान्तीय अपील न्यायालयों की स्थापना नहीं की गई थी जिस के कारण जिला न्यायालय के निर्णयों की अपीलें सीधे सदर दीवानी अदालत को ही प्रस्तुत की जाती थीं। कार्याधिक्य होने पर जिला न्यायाधीश की सहायता के लिए सहायक जिला न्यायाधीश नियुक्त किए जा सकते थे।
1827 में भारतीय व्यक्तियों के बीच के विवादों के लिए कमिश्नर नियुक्त किए गए थे जो 500 से 5000 रुपए तक के मामलों की सुनवाई कर सकते थे। कमिश्नरों को कोई भी ऐसा मामला सुनने का अधिकार नहीं था जिस में कोई यूरोपीय या अमरीकी नागरिक पक्षकार हो। कमिश्नरों के न्यायालयों के निर्णयों की अपील जिला न्यायालय सुनता था और उस का निर्णय बाध्यकारी होता था।
दांडिक न्याय प्रशासन
बंगाल की न्यायिक व्यवस्था के अनुरूप ही बम्बई में भी सपरिषद गवर्नर को दांडिक न्याय व्यवस्था स्थापित करने का अधिकार दिया गया था। इस के अंतर्गत 1827 में बम्बई प्रेसीडेंसी के लिए सूरत में मुख्य दांडिक न्यायालय के रूप में सदर निजामत अदालत स्थापित की गई। यह न्यायलय अधीनस्थ दांडिक न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनने के लिए अधिकृत था और अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण रखता था। उसे पुलिस पर भी अधीक्षण के अधिकार दिए गए थे।
बम्बई में गंभीर मामलों की सुनवाई के लिए सर्किट न्यायालयों की स्थापना की गई थी। ये न्यायालय वे मामले सुन सकते थे जिन्हें सुनने के लिए मजिस्ट्रेट और दंड न्यायाधीश सक्षम नहीं थे। इस न्यायालय में मुख्य दंड न्यायालय के न्यायाधीश वर्ष में दो बार जिलों का दौरा कर के न्यायिक कार्य का निपटारा करते थे।
राजनैतिक अपराधियों और राज्य के विरुद्ध अपराधियों के मामलों के विचारण के लिए विशेष न्यायालयों का गठन किया गया था। जो सपरिषद गवर्नर द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार काम करते थे। इस न्यायालय में मुख्य दंड न्यायालय के तीन न्या
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6 Comments
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लेख पढ कर उस समय के बारे पता तो चलता है, बहुत सुंदर लगा आज का लेख भी.
धन्यवाद
महत्वपूर्ण जानकारी देता आलेख।
अच्छी जानकारी.
दिनेश भाई !
अधिकतर लेख हमारे ऊपर से निकल गया ..बहुत कम समझ आया ! मगर यकीनन क़ानून के विद्यार्थी और विद्वानों के लिए आपकी यह श्रंखला संग्रहनीय होना चाहिए !
मगर हम जैसे अनाड़ियों के लिए भी तीसरा खम्बा पर कुछ रुचिकर सामग्री अवश्य होने चाहिए ! आप खुशदीप भाई के मख्खन वाले तर्ज़ पर एक अलग खंड बनाएं तो शायद अनाड़ियों के लिए नीरस श्रंखला शायद रसमयी हो जाये !
सादर !
ब्रिटिश काल की न्याय व्यवस्था पर आपके शोधप्रबंध को पढ़ कर हैरान हूँ. इसे अपने doctorate के लिए विस्तार दे सकते हैं. शुभकामनायें.