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बलात्कार परीक्षण: साक्ष्य, प्रक्रिया – महिला सशक्तिकरण

गतांक से आगे …

बलात्कार परीक्षण: साक्ष्य, प्रक्रिया Rape Trials: Evidence, Procedure

विधि आयोग ने अपनी ८४वीं रिपोर्ट पर साक्ष्य अधिनियम को भी बदलने के लिए संस्तुति की थी। इस रिपोर्ट के द्वारा साक्ष्य अधिनियम की धारा १४६ की उपधारा ४ और नयी धारा 53-A जोड़ने की बात है।  लेकिन सरकार ने रिपोर्ट की इन संस्तुतियों को स्वीकार नहीं किया।  यह संशोधन साक्ष्य अधिनियम में नहीं किया गया है।  इसके बावजूद न्यायालयों ने इसके सिद्धान्त को अपने निर्णयों के द्वारा स्वीकार कर लिया है।  मुख्यत:, यह कार्य उन्होंने, १९९१ और १९९६ में दो अलग-अलग निर्णयों State of Maharashtra Vs. Madhukar Narain Mardikar (मधुकर केस) और १९९६ में State of Punjab Vs. Gurmeet Singh (गुरमीत केस), में किया।

मधुकर केस, सेवा से सम्बन्धित केस था।  एक पुलिस इंस्पेक्टर पर, बलात्कार करने में और उसके सम्बन्ध में गलत कागजात तैयार करने का आरोप था। विभागीय कार्यवाही में, यह आरोप सिद्ध हो जाने के बाद, पुलिस इन्स्पेक्टर को नौकरी से हाथ धोना पड़ा।  पुलिस इन्स्पेक्टर ने, बम्बई उच्च न्यायालय में गुहार लायी।  उसकी याचिका स्वीकार कर ली गयी और उसे नौकरी पर वापस कर दिया गया।  उच्चतम न्यायालय इस फैसले को यह कहते हुए रद्द कर दिया,

‘The High Court observes that since Banubi is an unchaste women it would be extremely unsafe to allow the fortune and career of a government official to be put in jeopardy upon the uncorroborated version of such a woman who makes no secret of her illicit intimacy with another person. She was honest enough to admit the dark side of her life. Even a woman of easy virtue is entitled to privacy and no one can invade her privacy as and when he likes. … Therefore, merely because she is a woman of easy virtue, her evidence cannot be thrown overboard.’

आसान सतीत्व

उन्मुक्त जी का यह लेख महिलाओं की अपने अधिकारों की कानूनी लड़ाई के बारे में है। इसमें महिला अधिकार और सशक्तिकरण की चर्चा है। प्रस्तुत है इस की छठी कड़ी …

उच्च न्यायालय ने कहा कि, बनुबी गिरे चरित्र की महिला थी और किसी भी सरकारी अफसर का भविष्य ऎसी महिला के असमर्थित बयान पर तय करना ठीक नहीं होगा जो कि अपने और दूसरे व्यक्ति के साथ गलत सम्बन्धों को स्वीकार करती है।  इस महिला ने अपने जीवन के गिरे हिस्से को स्वीकार कर सच्चाई बरती है।  आसान सतीत्व चरित्र की महिलाओं को भी एकान्तता का अधिकार है।  उनकी एकान्तता के साथ कोई व्यक्ति मनमानी नहीं कर सकता है।  किसी महिला की गवाही केवल इसलिये नहीं नकारी जा सकती है कि वह आसान सतीत्व चरित्र की है।

गुरमीत सिंह का केस बलात्कार से सम्बन्धित दाण्डिक केस था।  विचारण न्यायालय ने गुरमीत सिंह को छोड़ दिया था लेकिन पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार की अपील को स्वीकार कर गुरमीत सिंह को सजा दे दी थी।  उच्चतम न्यायालय ने गुरमीत सिंह की सजा बहाल करते हुये कहा,

‘The courts must deal with such [rape] cases with utmost sensitivity. The courts should examine the broader probabilities of a case and not get swayed by minor contradictions of insignificant discrepancies in the statement of the prosecutrix. … If evidence of the prosecutrix inspires confidence, it must be relied upon without seeking corroboration of her statement in material particulars.’…

Some defence counsels adopt the strategy of continual questioning of the prosecutrix as to the details of the rape. Then victim is required to repeat again and again the details of rape incident not so much a to bring out the facts on record or to test her credibility but to test her story for inconsistencies with a view to attempt to twist the interpretation of events given by her so as to make them appear inconsistent with her allegations. … The court must also ensure that cross-examination is not made a means of harassment or causing humiliation to the victim of crime. The Court, therefore, should not sit as a silent spectator while the victim of crime is being cross-examined by the defence. It must effectively control the recording of evidence in the court.

Wherever possible it may also be worth considering whether it would not be more desirable that the cases of sexual assaults on the females are tried by lady Judges, wherever available, so that the prosecutrix can make her statement with greater ease. …
The courts should, as far as possible, avoid disclosing the name of the prosecutrix in their orders to save further embarrassment to the victim of sex crime.

We … hope that the trial courts would take recourse to the provisions of Sections 327(2) and (3) CrPC liberally. Trial of rape cases in camera should be the rule and an open trial in such cases an exception.’

न्यायालयों को बलात्कार के मामलों पर संवेदनशीलता से विचार करना चाहिए। न्यायालयों को मुकदमे की व्यापक संभावनाओं को देखना चाहिए और अभियोक्त्री के कथन में मामूली विसंगतियों या अमहत्वपूर्ण अंतर के कारण डांवाडोल नहीं होना चाहिए।  यदि अभियोक्त्री का साक्ष्य विश्वास उत्पन्न करता है तो उस पर बिना किसी समर्थित गवाही के भरोसा किया जाना चाहिए।
कई अधिवक्ता, अभियोक्त्री से बलात्कार के संबंध में निरंतर प्रश्न करते रहने की नीति अपनाते हैं।  उससे बलात्कार संबंधित घटना के ब्यौरे को बार-बार दोहराने की अपेक्षा इसलिये नहीं की जाती है, ताकि अभिलेख पर तथ्यों को लाया जा सके अथवा उसकी विश्वसनीयता का परीक्षण किया जा सके बल्कि इसलिये कि घटनाक्रम के निर्वचन को मोड़कर उसमें विसंगति लायी जा सके।  न्यायालय को यह देखना चाहिए कि प्रतिपरीक्षा, आहत व्यक्ति को परेशान करने या जलील करने का तरीका तो नहीं है।  प्रतिपरीक्षा के समय, न्यायालय को मूक दर्शक के रूप में नहीं बैठना चाहिये पर उस पर कारगर रूप से नियंत्रण करना चाहिये।
यह भी विचारणीय है कि क्या यह अधिक वांछनीय नहीं कि, जहां तक संभव हो लैंगिक आघात के मामलों का विचारण महिला न्यायाधीशों द्वारा, किया जाए।  इस तरह आहत महिला आसानी से अपना बयान दे सकती है।
जहां तक संभव हो, न्यायालय आहत महिला का नाम निर्णयों में न लिखें जिससे उसे आगे जलील न होना पड़े।
हम यह आशा करते हैं कि विचारण न्यायालय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा ३२७ (२) और (३) के अन्दर निहित अधिकारों का उपयोग उदारतापूर्वक करेंगे। सामान्यत: बलात्कार के मुकदमे बन्द न्यायालय में होने चाहिये और खुला विचारण अपवाद होना चाहिए।

इन दो निर्णयों के द्वारा न्यायालयों ने इन छः सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया हैः

  1. किसी महिला की गवाही केवल इसलिये नहीं नकारी जा सकती है कि वह आसान सतीत्व चरित्र की है;
  2. यदि अभियोक्त्री का साक्ष्य विश्वास उत्पन्न करता है तो उस पर बिना किसी समर्थित गवाही के भरोसा किया जाना चाहिए;
  3. प्रतिपरीक्षा के समय, न्यायालय को मूक दर्शक के रूप में नहीं बैठना चाहिये पर उस पर कारगर रूप से नियंत्रण करना चाहिये;
  4. जहां तक संभव हो लैंगिक आघात के मामलों का विचारण महिला न्यायाधीशों द्वारा, किया जाए;
  5. न्यायालय आहत महिला का नाम निर्णयों में न लिखें;
  6. सामान्यत: बलात्कार के मुकदमे बन्द न्यायालय में होने चाहिये और खुला विचारण अपवाद होना चाहिए।

-उन्मुक्त

(क्रमशः)

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