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भारतियों के लिए न्याय प्रशासन और 1953 की न्याय व्यवस्था की समीक्षा : भारत में विधि का इतिहास-26

भारतियों के लिए न्याय प्रशासन
1753 के चार्टर में भारतीय व्यक्तियों के लिए मेयर न्यायालय की अधिकारिता से छूट मिल जाने और रीति रिवाजों के अनुसार निर्णायकों द्वारा न्याय कराने की छूट मिल जाने से प्रेसिडेंसियों में अलग अलग देशज न्याय व्यवस्था स्थापित हो गई थी।
मद्रास – यहाँ चाउल्ट्री न्यायालय थे जो 20 पैगोडा मूल्य के दीवानी मामलों का निपटारा करते थे। वे 1774-75 में कुछ अवधि के अलावा 1796 तक कार्य करते रहे। जब तक कि कंपनी ने अपना कर्मचारी नियुक्त कर के एक सामान्य न्यायालय स्थापित नहीं कर दिया। सामान्य न्यायालय को पाँच पैगोडा मूल्य तक के मामलों की सुनवाई का अधिकार रह गया था। 1798 में इस न्यायालय का स्थान अभिलेखक के न्यायालय ने ले लिया और 1800 में यह न्यायालय सदैव के लिए समाप्त हो गया।
मुम्बई – यहाँ देशज व्यक्तियों के लिए कोई पृथक न्यायालय नहीं था। यहाँ के निवासियों को ब्रिटिश प्रजा मान कर मेयर न्यायालय ही काम करता रहा। तर्क यह था कि मुम्बई द्वीप इंग्लेंड के सम्राट को दहेज में मिलने के कारण यहाँ के निवासी उन की प्रजा हो गये थे।
कोलकाता – यहाँ भारतियों के लिए पहले की तरह जमींदार के न्यायालय काम करते रहे। उन्हें ही सक्षम बनाया गया। यहाँ हिन्दू और मुसलमानों को ही देशज माना गया अन्य देशज लोगों पर मेयर न्यायालय की ही अधिकारिता रखी गई। सत्र न्यायालय सभी पर समान रूप से दाण्डिक प्राधिकार रखता था और अंग्रेजी विधि के अनुरूप कठोर दंड प्रवर्तित करता था। 

समीक्षा
न्यायालय और कार्यपालिका के बीच मतभेद समाप्त करने की इस योजना से न्यायपालिका पर कार्यपालिका का पूर्ण नियंत्रण हो गया था और स्वतंत्र न्यायपालिका के सिद्धांत को आघात पहुँचा। मेयर न्यायालय में कंपनी के अधिकारियों की नियुक्ति से वे न तो अंग्रेजी विधि में दक्ष थे और न ही स्थानीय रिवाजों और परंपराओं से भिज्ञ थे। उन के द्वारा किया गया न्याय बहुत घटिया होता था। भारतियों के प्रति भेदभाव बरता जाता था। देशज व्यक्ति और कंपनी के बीच विवाद में अक्सर कंपनी का ही हित होता था। पेचीदा मामलों को इंग्लेंड भेजा जाता था जिस से न्याय में बहुत विलंब होता था।
मेयर न्यायालय की अपील को सुनने का अधिकार प्रिवि कौंसिल को दिया गया था लेकिन यह व्यवस्था अधिक कारगर सिद्ध नहीं हुई। और मेयर न्यायालय ही केंद्रीय न्यायालय बना रहा, जिस पर सपरिषद गवर्नर का कठोर नियंत्रण था।
न्यायालय को केवल प्रेसीडेंसी के निवासियों के मामलों पर ही सुनवाई का प्राधिकार था जिस से नगर के बाहर के अपराधियों को न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था जिस से वे बचे रह जाते थे। प्रेसीडेंसी के देशज निवासियों की प्रथाओं और रीति रिवाजों के विपरीत विधि होने से उन्हें युक्तिसंगत न्याय नहीं मिल सकता था। न्यायालयों में कुछ अटॉर्नियों को पक्षकारों का प्रतिनिधित्व करने की अनुमति दी गई थी लेकिन वे अंग्रेज होने के कारण भारतीय रीति रिवाजों से अनभिज्ञ होने से भारतीय पक्षकारों के लिए पूरी तरह से अनुपयोगी थे। वे यदि कंपनी के विरुद्ध किसी मामले में पैरवी करने को तैयार भी हो जाते थे तो उन के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही की जाती थी। इस न्याय व्यवस्था में भारतियों को कोई स्थान प्राप्त नहीं था। इस से भारतियों में इस न्याय व्यवस्था पर विश्वास कायम नहीं हो सका था।
न दोषों के बावजूद 1726 और 1753 के चार्टरों से स्थापित न्याय व्यवस्था ने भारत में अंग्रेजी विधि और न्यायिक व्यवस्था का प्रसार किया और न्याय व्यवस्था के विकास में एक नया अध्याय जोड़ कर भावी न्याय व्यवस्था के लिए नींव रखी। 1773 में

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