मजदूरों के लिए कोई न्याय नहीं…
|सुरेन्द्र कुमार ने हनुमानगढ़, राजस्थान से अपनी उत्तराखंड की समस्या भेजी है कि-
वकील कोर्ट केस को रसूखदार लोगों (सीएमडी फैक्ट्री) के साथ मिल कर कमजोर कर दे या खुर्द-बुर्द कर दे या केस को लंबा खिंचाता जाए। फिर केस दूसरे राज्य में चल रहा हो तो गरीब आदमी जो एक केस से विक्टिम है दूसरी समस्याओं से कैसे निपटेगा। औद्योगिक विवाद का मामला है कुछ सलाह दें।
समाधान-
आप ने अपने मुकदमों के बारे में कोई विवरण नहीं दिया है। जिस से उन का हल प्रस्तुत कर सकना तो संभव नहीं है। लेकिन आप ने अपने वकील पर विपक्षी से मिल कर मुकदमे में देरी करने, कमजोर करने और खुर्दबुर्द करने के आरोप लगाए हैं। आप ने अपने वकील पर जो संदेह व्यक्त किए हैं उन का आधार ठोस सबूत हैं या यह मुकदमे में देरी होने और वकील द्वारा उस के कमजोर होते जाने का उल्लेख करने के आधार पर ही कहा जा रहा है यह स्पष्ट नहीं है। किसी भी वकील पर केवल अनुमान के आधार पर कोई आरोप लगाया जाना उचित नहीं है। यदि आप वकील पर लगाए गए आरोपों को साबित कर सकते हैं तो फिर आप को उस की शिकायत बार कौंसिल को करनी चाहिए जिस से आप के वकील को ऐसा दुराचरण करने का दंड मिले।
लेकिन पूरे देश में श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों की दशा बहुत खराब है। वहाँ बरसों तक जज नियुक्त नहीं किए जाते। पर्याप्त अदालतें न होने से अदालतों में मुकदमों का अम्बार लगा है। एक-एक पेशी छह छह माह में पड़ती है। ऐसी स्थिति में मुकदमे में देरी के लिए वकील नहीं बल्कि राज्य सरकारें जिम्मेदार हैं जो पर्याप्त मात्रा में अदालतें स्थापित नहीं करतीं और स्थापित अदालतों में समय से जज नियुक्त नहीं करती। नई अदालतों की स्थापना और समय से जजों की नियुक्ति के लिए श्रमिक यूनियनों की ओर से कोई दबाव नहीं है, कोई आंदोलन नहीं है। इस नतीजा ये हुआ है कि औद्योगिक विवादों का निर्णय करने वाली ये अदालतें अब श्रमिकों को न्याय प्रदान नहीं कर रही हैं। उन का काम सिर्फ इतना रह गया है कि वह प्रबंधन के फैसलों के शिकार मजदूरों को अदालती प्रक्रिया में बरसों तक उलझाए रखे। तब तक या तो मजदूर मजबूर हो कर खुद ही अदालत का मैदान छोड़ भागे या फिर मर खप जाए।
उद्योगों और उन को चलाने वाली कंपनियों की उम्र सीमित होती है। उदयोग या तो बाजार या पिछड़ती टेक्नोलोजी का शिकार हो कर बंद हो जाते हैं कंपनियाँ खुद को घाटे बता कर खुद बीमार हो कर इलाज के लिए बीआईएफआर के पास चली जाती हैं। कंपनियों के ऐसेट्स खुर्द बुर्द कर दिए जाते हैं। जो नहीं किए जाते वे बैंकों के कर्ज चुकाने को भी पर्याप्त नहीं होते। बैंकों का उधार सीक्योर्ड होता है इस कारण संपत्ति से कर्जा वसूलने का अधिकार उन का पहला है। स्थिति यहाँ पहुंच जाती है कि कोई मजदूर मैदान में डटा रह कर मुकदमा जीत भी ले तो आगे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में लटका दिया जाता है। वहाँ से भी उस के जीवनकाल में कोई निर्णय हो जाए तो वह अपना पैसा वसूल करने की स्थिति में नहीं होता। क्यों कि तब तक कंपनी के पास कुछ नहीं रहता सब कुछ पर बैंक कब्जा कर लेते हैं।
मजदूरों के लिए इस देश में फिलहाल कोई न्याय नहीं है। यह बात मजदूरों को समझनी होगी। वे अपने लिए न्याय व्यवस्था की मांग को ले कर सामुहिक रूप से लड़ेंगे नहीं तब तक सरकारें कंपनियों और उद्योगपतियों को कोई कष्ट पहुँचे ऐसा काम नहीं करेंगी। मौजूदा व्यवस्था में जब तक मजदूर संगठित रहते हैं और सरकारों पर राजनैतिक दबाव बनाने की स्थिति में होते हैं तब तक ही कानून, सरकारें और अदालतें उन के लिए कुछ राहत प्रदान करने वाली बनी रहती हैं। जैसे ही आंदोलन कमजोर होता है ये थोड़ा बहुत न्याय भी कपूर की भांति उड़ जाता है।