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मध्य प्रांत और अवध की न्यायिक व्यवस्था : भारत में विधि का इतिहास-75

मध्य प्रांत की न्यायिक व्यवस्था
ध्य भारत के ब्रिटिश क्षेत्रों के लिए जिन्हें मध्य प्रांत कहा जाता था, 1865 के 14वें अधिनियम के द्वारा न्यायिक व्यवस्था को सुचारू बनाने के प्रयत्न किए गए। इस अधिनियम के द्वारा जिन न्यायालयों का गठन किया गया वे निम्न प्रकार हैं-
1. तहसीलदार द्वितीय श्रेणी का न्यायालय जो 100 रुपए तक के दीवानी मामले सुन सकता था। 
2. तहसीलदार प्रथम श्रेणी का न्यायालय जो 300 रुपए तक के दीवानी मामले सुन सकता था।  
3. सहायक आयुक्त तृतीय श्रेणी का न्यायालय जो 500 रुपए तक के दीवानी मामलों की सुनवाई कर सकता था।  
4. सहायक आयुक्त द्वितीय श्रेणी का न्यायालय जो 1000 रुपए तक के दीवानी मामलों की सुनवाई कर सकता था।  
5. सहायक आयुक्त प्रथम श्रेणी का न्यायालय जो 5000 रुपए तक के दीवानी मामलों की सुनवाई कर सकता था। उपायुक्त का न्यायालय जो असीमित मूल्य के दीवानी मामलों की सुनवाई कर सकता था।
6. आयुक्त का न्यायालय सभी मूल्यों के दीवानी मामलों की सुनवाई कर सकता था। साथ ही आयुक्त और उपायुक्त न्यायालयों निर्णयों के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई कर सकता था।
7. न्यायिक आयुक्त का न्यायालय मध्य प्रांत का सर्वोच्च अपील न्यायालय था। यह आयुक्त के न्यायालय के निर्णयों की सामान्य अपीलें और उपायुक्त के निर्णयों की विशेष अपीलों की सुनवाई कर सकता था।
1885 और 1917 में न्यायिक आयुक्त के न्यायालय का पुनर्गठन किया गया। बाद में इस न्यायालय की अधिकारिता नागपुर उच्चन्यायालय को अंतरित कर दी गई।
अवध की न्यायिक व्यवस्था- 
ध्य प्रांत की न्यायिक व्यवस्था के अनुरूप ही 1865 में अवध में भी न्यायिक व्यवस्था स्थापित की गई थी जिस में 1879 के अधिनियम से न्यायालयों की संरचना में परिवर्तन करते हुए केवल न्यायिक आयुक्त, जिला न्यायाधीश, सहायक न्यायाधीश और मुंसिफ के न्यायालय ही रहने दिए गए। इस अधिनियम से अवध ने एक विनियमित प्रांत का दर्जा हासिल किया। 1925 में न्यायिक आयुक्त के कार्यालय को अवध के मुख्य न्यायालय का दर्जा दिया गया। 1948 में इस मुख्य न्यायालय की अधिकारिता को इलाहाबाद उच्च न्यायालय को अंतरित कर दिया गया। 
न दोनों ही क्षेत्रों में सभी न्यायालयों को दीवानी मामलों की अधिकारिता दिए जाने के साथ ही दांडिक न्याय प्रदान करने की अधिकारिता भी प्रदान की गई थी।
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