मुकदमें में विवादित तथ्यों को साबित कौन करेगा ?
| पिछले आलेख पर मिली टिप्पणियों में ज्ञान दत्त जी पाण्डेय ने तथ्यों को साबित करने के भार से संबधित प्रश्न करते हुए दृष्टांत प्रस्तुत करने का सुझाव दिया था। यहाँ संक्षेप में उसी का प्रयास किया जा रहा है……..
किसी भी मुकदमें के दौरान चाहे वह दीवानी प्रकृति का हो या फौजदारी प्रकृति का अदालतों को सब से पहले यह तय करना होता है कि मुकदमें के विवाद के बिन्दु क्या हैं? परम्परागत रूप से इन बिन्दुओं को तनकीह कहा जाता है जो चलते-चलते तनकी और बहुवचन में तनकीयात हो गया है। लेकिन जब से हिन्दी में काम करने का प्रचलन बढ़ा है इन्हें विवाद्यक कहा जाने लगा है। हम यहाँ इन्हें विवाद्यक ही कहेंगे।
दीवानी मुकदमों में मुकदमा करने वाला पक्ष अपना दावा या वादपत्र प्रस्तुत करता है जिस में उस के दावे के समर्थन में सभी तथ्य अंकित होते हैं। इसी तरह मुकदमें में प्रतिवाद करने वाला पक्ष प्रतिवाद-पत्र या जवाब-दावा प्रस्तुत करता है। दोनों ही में अनेक तथ्य ऐसे होते हैं जिन में कोई विवाद नहीं होता है। कुछ तथ्य ऐसे होते हैं जिन के मामले में विवाद होता है। जैसे प्रतिवादी वादी द्वारा कथित किसी तथ्य से इनकार कर दे या उसे किसी दूसरे रूप में प्रस्तुत करे तो दोनों में भिन्नता होने के कारण उन्हें छाँट लिया जाता है। जिस से यह तय हो जाता है कि कौन से तथ्य हैं जिन पर विवाद है। इन्हें ही विवाद्यक कहा जाता है।
विवाद्यकों की रचना करने की जिम्मेदारी न्यायालयों की है। लेकिन मुकदमे के पक्षकार न्यायालय के समक्ष यह बात रख सकते हैं कि विवाद्यक गलत बनाया गया है, या बनाना ही नहीं चाहिए था, या कि विवाद्यक बनाया ही नहीं गया है। ऐसी अवस्था में न्यायालय पक्षकारों और उन के वकीलों के तर्क सुन कर विवाद्यकों की रचना करता है और उचित होने पर उनमें संशोधन भी कर सकता है। फौजदारी मामलों में जिस अपराध के लिए मुकदमा चलाया जाता है उस में यह निश्चित होता है कि अभियोजन चलाने वाले पक्ष को कौन से बिन्दु साबित करने जरूरी हैं, क्यों कि कानून की जिन धाराओं के अपराध के लिए मुकदमा चलाया जाता है उन से ही यह निर्धारित हो जाता है कि साबित करने के बिन्दु क्या हैं? इन का निर्धारण करना आवश्यक नहीं, लेकिन निर्णय लिखते समय उन सभी आवश्यक विवाद्यको पर पृथक-पृथक निष्कर्ष प्रस्तुत करना न्यायाधीश के लिए आवश्यक होता है।
इन विवादित बिन्दुओँ साबित करने का भार फौजदारी मुकदमों में तो अभियोजन पक्ष का ही होता है, केवल उन बिन्दुओं को छोड़ कर जिन में अभियुक्त अपने बचाव में कुछ खास तर्क रखता हो। जैसे वह कह सकता है कि जिस समय अपराध होना साबित हो रहा है उस समय वह तो कहीं और था। तो उसे निर्विवाद रूप से यह साबित करना पड़ेगा कि वह कहीँ और था। इस तरह इस तथ्य को साबित करने का भार अभियुक्त का हुआ।
दीवानी मामलों में विवाद्यकों की रचना के समय ही यह तय कर दिया जाता है किस विवाद्यक को साबित करने का भार किस पक्ष का होगा। दीवानी और फौजदारी मामलों में यह प्रश्न कि किस विवाद्यक को साबित करने का भार किस पक्ष पर होगा? साक्ष्य के कानून से तय होता है जिस के लिए इस कानून में पूरा एक अध्याय है।
इस मामले में सर्वप्रमुख सिद्धान्त यह है कि जिस तथ्य का कथन जो पक्ष करेगा वही पक्ष उसे साबित भी करेगा। यह साक्ष्य कानून की धारा 101 में कहा गया है। इस के आगे इसे और इस तरह स्पष्ट किया गया है कि किसी मुकदमे में किसी भी पक्ष द्वारा कोई भी साक्ष्य प्रस्तुत न करने पर जो पक्ष किसी तथ्य के साबित न होने के कारण मुकदमा हार जाए उस तथ्य को साबित करने का भार उसी पक्ष पर होता है। अब कुछ पाठक इस का भी दृष्टांत प्रस्तुत करने को कह सकते हैं लेकिन वह फिर कभी। अभी बात ज्ञान जी के प्रश्न की है तो
ऐसा एक दिलचस्प मुकदमा राजस्थान उच्च न्यायाल
य ने 1970 में निर्णीत किया है। लेकिन उसे भी कुछ घंटों के बाद आने वाले आलेख में पढ़िएगा। अभी इसी आलेख की लंबाई बहुत हो गई है और कुछ बातें उस से पहले किया जाना शेष है।
विगत आलेख पर भुवनेश शर्मा ने सहमति और स्वतंत्र सहमति के बारे में लोगों को ज्यादा से ज्यादा जानने की जरूरत पर जोर दिया था, क्योंकि अक्सर लोग इन चीजों के बारे में अज्ञान होने के कारण ही अपने अधिकारों से वंचित रह जाते हैं। भुवनेश जी की बात सही है। यही कारण रहा कि मैं ने यह तय किया कि हिन्दी में कानून को सरलतम रूप में प्रस्तुत किया जाए। कोशिश रहेगी कि जिन विषयों पर बारीकी से बात करने की आवश्यकता हो उन्हें विस्तार दिया जाए।
अभिषेक जी ओझा ने अंगूठा छाप पर महत्वपूर्ण प्रश्न सामने रखे हैं कि अनपढ़ वाले केस में: अगर किसी का अंगूठा किसी कांट्रेक्ट पर है तो क्या उसे ग़लत साबित किया जा सकता है? अगर कोई व्यक्ति अंगूठा लगाने के बाद कांट्रेक्ट से मुकरना चाहे तो क्या वह यह कह कर कांट्रेक्ट से पल्ला झाड़ सकता है कि, वह अनपढ़ है? अभिषेक जी के प्रश्न भी एक स्वतंत्र आलेख चाहते हैं। उस के लिए शीघ्र ही प्रयास करूँगा।
दृष्टांत के लिए प्रतीक्षा करें, केवल कुछ घण्टे।
सच मे डर लगता हे कोर्ट कचहरी से,यह तो एक तरह की भुल भुलेया हे, जो इस मे घुस गया, उस का भगवान ही मालिक, आप का बहुत बहुत धन्यवाद एक अच्छी जान कारी देने के लिये
कानून बहुत कठिन है, चाहे वह हिन्दी में हो या अंग्रेजी में ! शायद इसीलिए आम व्यक्ति इससे बचना चाहता है। खैर, हमें पता है कि कुछ भी जानकारी चाहिए तो किस चिट्ठे को खोलना है। 🙂
घुघूती बासूती
बढ़िया जानकारी,
बढ़िया जानकारी,
अगले आलेख की प्रतीक्षा रहेगी।
ये लेख भी अच्छा रहा… बारकियों को यूँ ही विस्तार देते रहे.
अरे आपकी बात से तो लग रहा है कि जज नामक प्राणी जिनके विषय में हम मानते रहे कि लकड़ी के हथौड़े को पीटने व मुवक्किलों को आंखें दिखाने के अलावा वे बस फार्म हाउसों की रंगीन पार्टियों में जाते भर हैं…पर लगता है कि उन्हें भी काफी पढ़ना लिखना पड़ता है :))
वैसे कोई अभियुक्त किसी अपराध के स्थान पर था ये यदि अभियोजन पक्ष कहे तब तो उसे ही सिद्ध करना पड़ेगा न।
बहुत पेंचीदा लग रहा है, फिर भी भला लग रहा है, यह लेखमाला !
यह तो भरोसा है कि नेट पर एक तैयार संदर्भ मौज़ूद है, सनद है….काम आयेगा ।
वाकई आपने लाख टके की जानकारी दे दी है …कुछ मुद्दों से बिल्कुल अनजान हूँ…