मैं वह फैसला पढ़ लेता तब भी मेरा फैसला वही होता ……
|साल का आखिरी दिन है, और अपने पाठकों और मित्रों से कानून की बात नहीं, व्यवहार की बात करना चाहता हूँ। यह ब्लाग विधि और न्याय प्रणाली से संबद्ध है तो बात उसी से संबद्ध अवश्य है।
बहुत दिनों तक अदालत खाली रहने के बाद उस में नए जज आए थे। सब वकील अभी उन्हें भाँपने में लगे थे, वे कैसे हैं? उन की समझ कैसी है? उन्हें अपनी बात को समझाने का कौन सा तरीका बेहतर होगा आदि आदि। इसी बीच एक माह गुजर गया। अदालत में सामान्य कार्यवाहियाँ तो चालू थीं लेकिन कोई भी वकील अभी किसी मुकदमे में अंतिम बहस नहीं करना चाहता था, जब तक कि यह ठीक से न जान लिया जाए कि जज साहब कैसे बात को समझेंगे। लेकिन हर बात की एक सीमा होती है। कभी न कभी तो वह दिन आना था जब किसी न किसी को बहस करनी थी। मेरे मुवक्किल भी कह रहे थे साहब अब तो बहस कर दें, जज साहब आ गए हैं। आखिर सब से पहले मैं ही तैयार हुआ अपना सर मुंडवाने के लिए।
बहस हो गई, मैं बहस से संतुष्ट भी था। सोचता था फैसला शत-प्रतिशत मेरे ही हक में होगा। लेकिन हुआ वह, जिस की संभावना लेश मात्र भी नहीं थी। हम मुकदमा हार गए। मुझे बहुत परेशानी हुई। हुआ यह था कि उस मुकदमे में एक कानूनी बिंदु ऐसा था जिस पर मुकदमा टिका हुआ था। मैं ने बहुत कोशिश की थी कि उस बिंदु का महत्व जज साहब को समझ आ जाए। लेकिन मेरी कोशिश कामयाब न हो सकी। मैं ने सर्वोच्च न्यायालय का एक निर्णय उस संबंध में उन्हें बताया भी था जो कि उस महत्वपूर्ण बिंदु पर रोशनी डालता था। मेरी समझ में एक ही बात आई कि जज साहब ने और सब बातों पर ध्यान दिया लेकिन उन्हों ने वह निर्णय जो मैं ने संदर्भ के लिए प्रस्तुत किया था उसे पढ़ा नहीं। हालांकि जज साहब ने यह अवश्य लिखा था कि वह निर्णय इस प्रकरण पर चस्पा नहीं होता। जज साहब की ईमानदारी और योग्यता संदेह के परे थी। बस यही एक बात थी जो चुभ रही थी कि जज साहब ने बहस के वक्त पर्याप्त ध्यान नहीं दिया और मनोगत रीति से फैसला दे दिया।
मेरे मुवक्किल के पास यह उपचार था कि वह उच्च न्यायालय में निर्णय के विरुद्ध रिट याचिका प्रस्तुत करे। लेकिन मुझे यह भय सता रहा था कि मेरे मुवक्किल तो गरीब मजदूर होते हैं। वे उच्च न्यायालय में अपने मामले का प्रतिवाद तो कर सकते हैं। लेकिन निचले न्यायालय से मुकदमा हार जाने के बाद उन के लिए उच्चन्यायालय में उसे चुनौती देना व्यवहारिक रूप में दुष्कर होता है। हार जाने से उन में हताशा जागती है, लड़ने के लिए पैसा भी चाहिए, उच्च न्यायालय में भी दस-पाँच साल के बिना फैसला नहीं होता। मैं ने सोचा कि यदि ये जज साहब इसी तरह फैसले देते रहे तो बहुत से लोगों का इसी तरह कल्याण हो जाएगा। आखिर मैं इस निर्णय पर पहुँचा कि जज साहब से बात करनी होगी। अक्सर किसी जज से फैसले के बारे में फैसले के बाद बात करने पर वे यही कहते हैं कि उन्हों ने जो किया वह ठीक किया। यदि आपत्ति है तो आप आगे के न्यायालय में उसे चुनौती दे दें। फिर भी मैं ने बात करना उचित समझा।
तीन-चार दिन बाद एक दिन अवसर मिला। अदालत में जज साहब थे, उन का रीडर और मैं और कोई नहीं था। मैं ने जज साहब से कहा- आप बुरा न मानें तो एक बात कहना चाहता हूँ?
-कहिए, और बिलकुल न झिझकिए। जज
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7 Comments
@boletobindas
भाई, बिनायक सेन मामले का फैसला हिन्दी में है और नेट पर उपलब्ध है। पिछली दो पोस्टों में उस के लिंक दिए गए हैं। निर्णय की आप स्वयं पढ़ कर जाँच कर सकते हैं कि वह कितना कमजोर है। बिनायक सेन के विरुद्ध कोई भी सीधी साक्ष्य निर्णय में नहीं है, जब कि छत्तीसगढ़ की पुलिस व सरकार के लिए यह मामला नाक का सवाल बन चुका था। इतने महत्वपूर्ण मामले में पेश की गई सैंकड़ो नजीरों में से एक का कोई अंश तक निर्णय में उद्धृत तक नहीं किया गया है। जब निर्णय इतना कमजोर होगा तो उस की आलोचना तो होगी, आखिर फैसले से तीन अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है।
सर आपको नया साल मुबारक हो। आपने पहले दिन काफी पते की बात कही है। औऱ भोपाल कांड के सहारे सही नजीर भी दी है। देश के न्यायाधीशों को इतना मजबूत होना चाहिए कि वो अपनी आलोचना से घबराएं नहीं। पर साथ ही अदालत की इज्जत करना भी हमें सीखना चाहिए। आलोचना स्वस्थ तरीके से होती रहे तो कोई बात नहीं। जाहिर है कि न्यायालय अक्सर अपने ही फैसले पलट देती है। जहां तक विनायक सेन जी की सजा वाली बात है अभी उसपर खुलकर कुछ कहना मुनासिब नहीं होगा। जबतक कि आदेश की प्रति नहीं मिल जाती। क्योंकी आदेश काफी कुछ सबुतों पर निर्भर करते हैं। कई बार गढ़े गए सबुत भी अकाट्य बन जाते हैं कि उनसे परे जा पाना अदालत के बाहर होता है। ऐसे में चंद लाइनों के सहारे में किसी भी तरह की आलोचना को पूरी तरह गैर वाजिब ठहराता हूं। वैसे एक बात तय है कि अगर विनायक सेन हिंसा की किसी भी तरह से समर्थन कर रहे थे तो फिन मेरे लिए ऐसा कोई भी व्यक्ति राष्ट्रद्रोही है। आप अपनी व्यव्स्था को बदल सकते हैं अगर संकल्प कर लें। लेकिन अपने ही लोगो को मारना नक्सली हिंसा का सहारा लेकर देश के खिलाफ हथियार उठाने वाले के लिए मेरी नजर में सिर्फ और सिर्फ मौत की सजा ही उचित सजा है। चाहे वो कोई भी हो।
नववर्ष 2011 आपको और आपके पूरे परिवार को मंगलमय हो!
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मानवीय भूल और टंकण त्रुटि की आड़ में बहुत कुछ खेल हो जाता है।
आप को परिवार समेत नये वर्ष की शुभकामनाये.
सही बात.
आपको – पूरे परिवार को नव वर्ष की शुभ कामनाएं.
बात तो मुद्दे की है