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यौन उत्पीड़न पर एक और कानून, क्या कुछ बदल पाएगा?

यौन उत्पीड़न से स्त्रियों की रक्षा के लिए एक और कानून आने को है, मंत्रीमंडल ने इस के लिए अनुमति प्रदान कर दी है। किसी भी सामाजिक समस्या के लिए कानून बना कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझने में भारतीय राजनीतिज्ञों का कोई सानी नहीं है। देश के आजाद होने के बाद से आज तक यही होता आया है कि जब भी किसी सामाजिक समस्या के बारे में जनता के पीड़ित हिस्से से आवाज उठनी आरंभ होती है तभी उन्हें खयाल आता है और सरकार एक कानून का प्रस्ताव संसद में ले कर आती है, विपक्ष उस कानून का समर्थन करता है और कानून बन जाता है। समस्या को पुलिस, अदालत और नौकरशाहों के हवाले कर दिया जाता है। समस्या जहाँ की तहाँ बनी रहती है और पुलिस, वकीलों और नौकरशाहों की चांदी हो जाती है।
विवाहित स्त्रियों पर हो रहे क्रूरता के मामलों की अधिकता को देखते हुए भारतीय दंड संहिता में धारा 498-ए जोड़ी गई थी। लेकिन पता लगा कि जिन मामलों में तुरंत कार्यवाही की आवश्यकता होती है वहाँ कार्यवाही नहीं होती, लेकिन जहाँ पुलिस को अतिरिक्त लाभ की गुंजाइश होती है वहाँ फर्जी शिकायतों पर लोगों का तेल निकाल लिया जाता है। अब कहा जा रहा है कि इस प्रावधान का दुरुपयोग बड़े पैमाने पर हो रहा है, जिसे रोका जाना चाहिए। वास्तविकता भी यही है कि कानून में कोई खराबी नहीं है। केवल समस्या यह है कि अपराधों के अन्वेषण का काम हमारी पुलिस के हाथों में है, और सब जानते हैं कि हमारी पुलिस की दशा क्या है?
कोई भी सामाजिक समस्या केवल कानून बना कर समाप्त नहीं की जा सकती। उस के लिए देश भर में सामाजिक अभियान जरूरी हैं। लेकिन जहाँ हमारे राजनेता पूरी तरह बेईमान हों वहाँ इस की संभावना नहीं के बराबर है। जो सांसद कानून बनाने के लिए वोट देते हैं या फिर बहस और मतदान से गैरहाजिर रहते हैं वे कभी इन सामाजिक समस्याओं के बारे में बात नहीं करते। उन के कर्तव्य की इतिश्री संसद के भीतर ही हो जाती है। आज सारे दलों के नेता दहेज के विरुद्ध हैं, स्त्री के उत्पीड़न के विरुद्ध हैं, लेकिन सामाजिक रूप से वे खुद दहेज लेते हुए और स्त्री उत्पीड़न में संलग्न दिखाई पड़ते हैं। भारतीय व्यवहार का यही दोमुखापन है जो सामाजिक समस्याओं को समाप्त नहीं होने देता। हम अच्छी तरह जानते हैं कि इस कानून के आने के बाद भी  स्त्री उत्पीड़न में शायद कुछ कमी आ पाए।
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