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लार्ड क्लाइव के कारनामे और वारेन हेस्टिंग के पूर्व की परिस्थितियाँ : भारत में विधि का इतिहास-27

हम 1771 के बंगाल के अकाल की परिस्थितियों के प्रकाश में आज के हालात पर विचार कर सकते हैं, जब कि वर्षा के अभाव से देश में कृषि उत्पादन कम हुआ है, कंपनियाँ अपना मुनाफा बटोरने में लगी हैं, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बाजार अर्थव्यवस्था के बहाने नष्ट किया जा चुका है, कालाबाजारिये और मुनाफाखोर पूरी तरह सक्रिय हैं और केंद्र व राज्यों की सरकारें सिर्फ तमाशा देख रही हैं।

लॉर्ड क्लाइव का भारत आगमन 

नवाब सिराजुद्दौला

न् 1600 ईस्वी में भारत में प्रवेश के 150 वर्षों में कंपनी ने अपने कारोबार में बहुत वृद्धि कर ली और अपनी क्षेत्रीय प्रभुता का विस्तार भी किया। प्रेसीडेंसी नगरों में अपना प्रशासन और न्याय व्यवस्था भी कायम कर ली थी। कंपनी की बढ़ती हुई शक्ति को देख बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने 1756 में कलकत्ता पर आक्रमण कर के उस पर अपना अधिकार कर लिया। इस का समाचार मद्रास पहुँचने पर कंपनी के अधिकारियों ने विचार-विमर्श किया और नवाब की चुनौती का सामना करने के लिए तत्कालीन गवर्नर लार्ड क्लाइव को दायित्व सौंपा। 1757 में बक्सर के मैदान में क्लाइव ने सिराजुद्दौला को अपने सामने समर्पण करने को बाध्य कर  के स्वयं को कुशल सेना नायक सिद्ध कर दिखाया। इस से बंगाल में कंपनी का प्रशासनिक आधिपत्य पुनः स्थापित हो गया। ब्रिटिश मान्यता के अनुसार कोई भी ब्रिटिश व्यक्ति किसी क्षेत्र की संप्रभुता का अर्जन नहीं कर सकता था। इस कठिनाई के कारण कंपनी ने स्वयं अपनी सत्ता स्थापित करने के स्थान पर वहाँ मीर जाफर को नाम मात्र का नवाब घोषित कर दिया। उस की मृत्यु के उपरांत उस के पुत्र निजामुद्दौला को नवाब की गद्दी सौंप दी गई।


बंगाल में कंपनी का विस्तार 

लॉर्ड क्लाइव युद्ध मैदान में

ब्रिटिश सम्राट ने 1757 में ही विशेष अनुज्ञप्ति जारी कर कंपनी को भारत में अर्जित क्षेत्र को हस्तांतरित करने .या अपने प्रभुत्व में रखने का प्राधिकार दे दिया। कंपनी ने इस शक्ति के अधीन मीर जाफर से संधि कर हुगली नदी के किनारे हथियारबंद किले का निर्माण किया और हुगली नदी को अपने व्यापार के उपयोग में लाने की सुविधा प्राप्त कर ली। कलकत्ता के दक्षिण में कालपी का क्षेत्र भी कंपनी की जमींदारी में शामिल कर लिया गया। इस से कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा में अपनी प्रभुता के विस्तार का अवसर प्राप्त हुआ। 1771 में पानीपत में मराठों की पराजय से कंपनी के विस्तार का मार्ग और प्रशस्त हुआ। क्लाइव ने कहीं भूमि के अधिकार प्राप्त किए तो कहीं मालगुजारी के अधिकार हासिल किए। उस की सफलता के कारण उसे फिर से गवर्नर बना कर भारत भेजा गया। उस ने कंपनी के सैन्य और नागरिक प्रशासन में बहुत फेर बदल किए और बंगाल, बिहार और उड़ीसा में दोहरा शासन स्थापित किया। मुगल साम्राज्य  में प्रशासन सूबों में विभाजित था और प्रशासनिक व्यवस्था दीवानी और निजामत में विभाजित थी। दोहरी प्रशासन प्रणाली में सैन्य, अपराधिक पुलिस प्रशासन के अधिकार उस ने नवाब के पास रखे जिस के बद
ले कंपनी नवाब को निर्धारित राशि अदा करती थी और दीवानी के अधिकार कंपनी ने स्वयं के पास रख कर वह नवाब के कर्मचारियों से मालगुजारी वसूल कराती थी। इस नयी व्यवस्था में प्रशासन का अंतिम सूत्र कंपनी के हाथ आ गया था, उसे अपनी सेना रखने का अधिकार मिल गया था।

मुगल सम्राट से संधि और दीवानी अनुदान 

लॉर्ड क्लाइव और मीर ज़ाफऱ

न् 1764 में बक्सर के युद्ध में मुगल सम्राट, अवध के नवाब और बंगाल के नवाब की संयुक्त सेनाओं पर विजय प्राप्त कर लेने के उपरांत कंपनी ने क्लाइव के नेतृत्व में मुगल सम्राट शाह आलम से 12 अगस्त 1765 को संधि की और अपने लिए बंगाल, बिहार और उड़ीसा की मालगुजारी के अधिकार हासिल कर लिए जिन्हें “दीवानी अनुदान” कहा गया।  हालांकि यह अधिकार पहले से कंपनी के पास थे। लेकिन इस संधि से बंगाल के नवाब की अहमियत समाप्त हो गई थी और मुगल सम्राट को भारत का सम्राट मानते हुए कंपनी ने अपने अधिकारों को पुष्ट किया था। वास्तव में क्लाइव की निगाहें संपूर्ण भारत पर टिकी हुई थी। उस ने 30 सितंबर 1765 को निजामुद्दौला से संधि कर के 53 लाख रुपए वार्षिक महसूल पर बंगाल में कंपनी के लिए निजामत के अधिकार भी प्राप्त किए। निजामत के अधीन अपराध नियंत्रण, न्यायपालिका और सैन्य संचालन का काम था। दीवानी और निजामत दोनों के अधिकार हासिल कर लेने पर बंगाल पर कंपनी का संपूर्ण प्रभुत्व स्थापित हो गया। हालांकि दोनों ही काम पहले की तरह पुराने कर्मचारी करते रहे लेकिन प्रबंधन कंपनी के पास आ गया था।

1771 का बंगाल का अकाल 

अकाल पीड़ित बंगाली मानुष

ह स्थिति कंपनी के लिए बहुत लाभदायक थी। उस ने जन सुविधाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया और केवल लाभ कमा कर अपना खजाना भरना जारी रखा।  देशी अधिकारी अंग्रेजों को खुश करने में और अपने घर भरने में लगे रहने लगे थे। जनता की किसी को कोई परवाह नहीं थी। उस की जो दुर्दशा हो रही थी उस के लिए वह नवाब और मुगल सम्राट को ही जिम्मेदार समझती थी। 1765 से 1772 तक का काल बंगाल की जनता के लिए सब से दयनीय रहा। उस की करुण गाथा इंग्लेंड पहुँची तो 1769 में स्थिति में सुधार के लिए पर्यवेक्षक नियुक्त हुए लेकिन उस से स्थितियों में कोई अंतर नहीं आया। इन स्थितियों ने 1771 के बंगाल के अकाल को अत्यंत गंभीर बना दिया। कंपनी दैनिक वस्तुओं के भाव बढ़ा कर अपना मुनाफा बटोरती रही और बंगाल की चौथाई जनसंख्या अकाल ने नष्ट कर दी। (हम इन परिस्थितियों के प्रकाश में आज पर विचार कर सकते हैं, जब कि वर्षा के अभाव से देश में कृषि उत्पादन कम हुआ है, कंपनियाँ अपना मुनाफा बटोरने में लगी हैं, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बाजार अर्थव्यवस्था के बहाने नष्ट किया जा चुका है, कालाबाजारिये और मुनाफाखोर पूरी तरह सक्रिय हैं और केंद्र व राज्यों की सरकारें सिर्फ तमाशा देख रही हैं।)

 न्याय व्यवस्था की दुर्दशा
न हालातों में बंगाल की पुरानी न्याय-व्यवस्था में 1. नवाब का न्यायालय, 2. दीवान का न्यायालय, 3. दरोगा-ए-अदालत-उल-आलिया 4. दरोगा-ए-दीवानी और 5. काजी की अदालतें कायम थीं। नवाब का न्यायालय गंभीर और मह

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