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लैंगिक न्याय और अपराध – महिला सशक्तिकरण

गतांक से आगे …

विवाह सम्बन्धी अपराधों के विषय में

उन्मुक्त जी का यह लेख महिलाओं की अपने अधिकारों की कानूनी लड़ाई के बारे में है। इसमें महिला अधिकार और सशक्तिकरण की चर्चा है। प्रस्तुत है इस की पाँचवीं कड़ी …

न्याय से सम्बन्धित, सबसे ज्यादा विवादास्पद विषय दण्ड न्याय का है। यहां पर न केवल लैंगिक न्याय को देखना है पर उसका अभियुक्त के अधिकारों के साथ ताल-मेल भी बैठाना है। इसके पहले कि हम इस विषय पर हम नजर डालें, भारतीय दण्ड संहिता (Indian Penal Code) में विवाह सम्बन्धी अपराध से संबन्धित धाराओं को देखना ठीक रहेगा जिन्हें भारत सरकार के द्वारा राष्ट्रीय महिला आयोग ने यह कहते हुये हटाने की मांग की गयी थी कि वे १९वीं शताब्दी की मान्यता को बनाये रखती हैं जिसमें पत्नी को पति की सम्पत्ति माना जाता था और जो पत्नियों को पति से न्याय दिलाने में मुश्किल पैदा करता है।

विवाह सम्बन्धी अपराध, भारतीय दण्ड संहिता के २०वें अध्याय में हैं। इस अध्याय में छः धारायें हैं पर हम बात करेंगे धारा ४९७ (Adultery) और ४९८ (Enticing or taking away or detaining with criminal intent a married woman) की।

आचरण कानूनी तौर पर गलत हो सकता है और अपराध भी, पर इन पर इन दोनों में अंतर है।  यदि कोई आचरण, कानून के विरूद्ध है तो वह कानूनी तौर पर गलत आचरण है।  सारे कानूनी तौर पर गलत आचरण के लिये सजा नहीं है और जिनके लिये है वे अपराध या फिर जुर्म कहलाते हैं।  अर्थात हर अपराध, कानूनी तौर पर गलत आचरण होता है पर हर गलत आचरण अपराध नहीं होता है। कानूनी तौर पर गलत आचरण के व्यावहारिक परिणाम (civil consequences) हो सकते हैं।

किसी विवाहित व्यक्ति के लिए अपने पति/पत्नी की अनुमति के बिना, किसी अन्य व्यक्ति के साथ संभोग करना कानूनी तौर पर गलत आचरण है पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा ४९७ केवल उस पुरूष को दण्डित करती है जो कि किसी विवाहित महिला के साथ उसके पति की अनुमति के बिना संभोग करता है। यहाँ यह आचरण विवाहित महिला के लिए अपराध नहीं है।

यदि कोई विवाहित पुरूष किसी अविवाहित महिला के साथ अपनी पत्नी की अनुमति के बिना संभोग करता है तो यह अपराध नहीं है हालांकि कि यह कानूनी तौर पर गलत आचरण है।

जैसा मैंने पहले बताया है कि कानूनी तौर पर गलत आचरण के व्यावहारिक परिणाम हो सकते हैं। ऊपर बताये गये, कानूनी तौर पर गलत आचरण (जो अपराध नहीं हैं) उन पर भी तलाक हो सकता है।

इसी तरह से भारतीय दण्ड संहिता की धारा ४९८ में, विवाहित महिला को गलत इरादे से संभोग करने के लिये भगा ले जाने को अपराध करार करती है।

दण्ड प्रक्रिया की धारा १९८ (२) के अंतर्गत, इन दोनों अपराधों की संज्ञान भी खास परिस्थिति में ही लिया जा सकता है। अर्थात सब लोग इस बारे में शिकायत नहीं कर सकते हैं।

दुनिया के बहुत सारे देशों में इस तरह के आचरण को अपराधों की श्रेणी में नहीं रखा गया है पर तलाक लिया जा सकता है।

यह दोनों धाराओं में महिलाओं से पक्षपात परिलक्षित होता है।  इन दोनों धाराओं की वैधता को चुनौती दी गयी थी पर उच्चतम न्यायालय ने सबसे इन दोनों धाराओं के लिए १९५९ में Alamgir Vs. State of Biihar में वैध मान लिया।  उच्चतम न्यायालय ने इसके बाद के निर्णयों में यही मत बहाल रखा। न्यायालय के अनुसार,

‘The provisions of S. 498 like those of S 497 are intended to protect the rights of the husband and not those of the wife.

The policy underlying the provisions of S. 498 may no doubt sound inconsistent with the modern notions of the status of women and of the mutual rights and obligation under marriage.

[It] is a question of policy with which courts are not concerned.’

धारा ४९८, के प्राविधान धारा ४९७ की तरह पतियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिये है न कि पत्नियों के अधिकारों के लिये।


आज के समय में धारा ४९८ की नीति, महिलाओं की सामाजिक स्थिति एवं शादी के आपसी अधिकारों व कर्तव्य से असंगत है।


यह नीति के सवाल हैं और इनका न्यायालय से कोई सम्बन्ध नहीं है।

यौन अपराध (Sexual offence)

यौन अपराध के मुकदमों में सबसे ज्यादा चर्चित मुकदमा Tuka Ram Vs. State of Maharashtra है। यह मथुरा बलात्कार केस के नाम से भी जाना जाता है। इसके अन्दर मथुरा नाम की लड़की अपने प्रेमी के साथ भाग गयी थी। उसके भाई ने प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करायी। इस पर वह पकड़ी गयी और पुलिस स्टेशन लायी गयी। वहां उसका बयान भी दर्ज किया गया। कहा जाता है कि पुलिस स्टेशन के अन्दर, उसके साथ हेड कांस्टेबिल और अन्य कांस्टेबिलों ने उसके साथ बलात्कार किया। मैं यह इसलिये कह रहा हूं क्योंकि यह आरोपी, उच्चतम न्यायालय के द्वारा वे छोड़ दिये गये हैं। इस केस की महत्वपूर्ण बात यह थी कि इसमें इस बात से कोई इंकार नहीं था कि पुलिस स्टेशन के अन्दर हेड कांस्टेबिल और बाकी कांस्टेबिलों ने लड़की के साथ संभोग किया पर सवाल यह था कि क्या इस संभोग में लड़की की रजामंदी थी अथवा नहीं।

इस मुकदमे में परीक्षण न्यायालय ने आरोपियों को छोड़ दिया था पर बम्बई उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार की अपील स्वीकार कर ली थी। उच्चतम न्यायालय ने आरोपियों की अपील स्वीकार कर, उन्हें छोड़ दिया। उच्चतम न्यायालय के अनुसार,

‘The consent in question was not a consent which could be brushed aside as passive submission’. …
‘It [ The High Court ] did not give a finding that such fear [for sexual intercourse] was shown to be that of death or hurt.’

प्रश्नगत सहमति ऎसी सहमति नहीं थी जिसे यह कहकर अस्वीकृत किया जा सके कि वह निश्चेष्ट आत्म-समर्पण है।


उच्च न्यायालय ने इस तरह का कोई भी निष्कर्ष नहीं दिया गया कि संभोग करने के लिये मृत्यु या चोट पहुंचाने की धमकी दी गयी थी।’

अधिकतर न्यायविद इस निर्णय को गलत निर्णय मानते हैं। मेरे विचार से यह उच्चतम न्यायालय के अच्छे निर्णयों में से नहीं है।

इस निर्णय के आने के पहले ही, विधि आयोग ने १९७१ में ही अपनी ४२वीं रिपोर्ट पर बलात्कार के कानून को बदलने के लिए कहा था पर सरकार ने कुछ नहीं किया था। इस निर्णय के बाद उठे तूफान पर, सरकार ने पुन: विधि आयोग से रिपोर्ट देने की प्रार्थना की।

विधि आयोग ने १९८० में अपनी ८४वीं रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट की कुछ संस्तुतियों की स्वीकृति के बाद, Criminal Law Amendment Act 1983 ( Act no. 43 of 1983) के द्वारा फौजदारी कानून में इस विषय पर आमूल-चूल परिवर्तन किया गया।

इस संशोधन अधिनियम से,

  • भारतीय दण्ड संहिता की धारा ३७५ व ३७६ के स्थान पर नई धारायें स्थापित की गयी और धारायें ३७६-क से ३७६-घ जोड़ी गयी।
  • साक्ष्य अधिनियम में भी नयी धारा 114-A जोड़ी गयी। इस संशोधन के द्वारा, कुछ परिस्थितियों में (जैसे कि मथुरा बलात्कार मुकदमे में थीं) आरोपी को सिद्घ करना है कि बलात्कार नहीं हुआ है।
  • दंड प्रक्रिया संहिता की धारा ३२३ भी बदली गयी। अब न्यायालय बलात्कार के मुकदमे का विचारण बन्द कमरे में कर सकता है; या मीडिया में उसके प्रचार को मना कर सकता है।

-उन्मुक्त

(क्रमशः)