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लोक अदालतें : मुक्ति यज्ञ

राजस्थान की अदालतों के लिए यह सप्ताह लोकअदालतों का है। सभी अदालतों ने अपने यहाँ लंबित मुकदमों में से छाँट छाँट कर एक सूची बनाई है और पक्षकारों को नोटिस भेजें हैं कि यदि वे समझौते से अपने मामलों के हल के उत्सुक हों तो अदालत में निर्धारित तिथि पर आएँ और मुकदमे को निपटाने का प्रयत्न करें। इस दौरान मुकदमों की सामान्य सुनवाई बाधित हो रही है। अदालतें चाहती हैं कि उन के यहाँ लंबित मुकदमों में से कुछ कम हो जाएँ। यह उच्च न्यायालय का निर्देश है। अदालतों को काम तो दो व्यक्तियों के बीच तथ्यों और कानूनी समझ के फेर और जिद के कारण उत्पन्न विवादों का निपटारा करना है। उन का काम यह है कि पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत अभिवचनों, साक्ष्य और विधि के आधार पर वे मामले का निपटारा अल्पतम समय में करे। किसी भी आबादी में विवादों की संख्या  हमेशा जनसंख्या की समानुपाती होती है। जनसंख्या के हिसाब से भारत में न्यायालयों की संख्या अत्यन्त कम है।  दस लाख की आबादी पर जहाँ अमरीका में 111 और ब्रिटेन में 55 न्यायालय हैं वहाँ भारत में यह संख्या 12-13 ही है। अमरीका के मुकाबले हमारे यहाँ केवल 14-15 प्रतिशत न्यायालय हैं। हम इस से यह नतीजा निकाल सकते हैं कि अमरीका की फेडरल और राज्य सरकारें अपनी जनता को न्याय उपलब्ध कराने को जितनी चिन्तित रहती है और प्रणाली उपलब्ध कराती है, भारत सरकार उस के मुकाबले केवल 14-15 प्रतिशत चिंता करती है और उतनी ही प्रणाली उपलब्ध कराती है।  
मारी न्याय प्रणाली का आकार देश की आबादी को न्याय प्रदान करने में पूरी तरह असमर्थ है, इस बात को हमारी जनता भी अब अच्छी तरह जानने लगी है। जब किसी के साथ अन्याय होता है तो वह न्यायालय जाने में झिझकती है। वह जानती है कि न्यायालय से उसे न्याय नहीं मिलेगा। उस की फरियाद तो ले ली जाएगी। लेकिन फिर तारीख पर तारीख के कारण उसे इतने चक्कर लगाने पड़ते हैं, जिस की पीड़ा के सामने न्याय न मिलने की पीड़ा छोटी हो जाती है, धीरे-धीरे वह और छोटी होती जाती है। अंत में वह न्यायालय से पीछा छुड़ाने की सोचने लगता है। इस तरह के बहुत लोग हैं जो न्याय प्राप्त करने के इस झंझट से मुक्त होना चाहते हैं। उधर मुकदमों के बोझ से दबे न्यायालय भी चाहते हैं कि उन के यहाँ मुकदमे कम हो जाएँ तो वे बचे हुए मुकदमों की तरफ ध्यान दे सकें और कम से कम उन में तो न्याय कर सकें। हमारा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों  के लिए वस्तुतः ये लोक अदालतें एक तरह का मुक्ति यज्ञ है। इस यज्ञ से पक्षकार न्याय के झंझट से मुक्ति प्राप्त कर के हर तरह का अन्याय सहने की सीख प्राप्त करते हैं। कभी जरूरत हो तो बाहुबलियों को उन का शुल्क अदा कर मनचाहा न्याय प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। अब ये तो सब जानते हैं कि बाहुबलियों को शुल्क अदा करने की शक्ति किन के पास है और उन की संख्या कितनी है। अदालतें भी इस यज्ञ से बहुत सारे मुकदमों से मुक्त हो जाती है। इसी कवायद में वह वास्तविक अपराध करने वाले लोगों को न्याय के झंझट से मुक्त कर देती है। वे अपनी छाती चौड़ी कर के फिर से समाज में इतराने के लिए पहुँच जाते हैं।
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