वकीलों, न्यायाधीशों और चिट्ठाकार साथियों से विनम्र निवेदन
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भारत की न्यायपालिका को बचाएं, देश बचाएं
अब यह सब के सामने है कि पर्याप्त साधनों के अभाव में भारत की न्यायपालिका देश में हो रहे विकास की तुलना में अत्यन्त क्षीण रह गई है। वह आज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में अक्षम है। भारत के मुख्य न्यायाधीश के अनुसार न्यायपालिका के पास वर्तमान जरूरतों की केवल १५ प्रतिशत अदालतें हैं।इस सवाल के जवाब में कि वे अधिक तेजी से मुकदमों के निपटारे के लिए क्या कर सकते हैं उन्हों ने कहा-
‘एक अदालत एक दिन में कितने मुकदमे सुन सकती है? अधिक से अधिक १० या १ लेकिन यदि अदालतें रोज १००-१०० मुकदमे भी सुनें तो भी समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता है।’
हम व्यस्त अदालतों में जा कर देखें तो उन में १००-१०० से भी अधिक मुकदमे रोज सुनवाई के लिए लगाने पड़ रहे हैं। इस का नतीजा यह है कि ये अदालतें जितने मुकदमों में पहले फैसले कर देती थीं आज नहीं कर पा रही हैं उन का मुख्य काम मुकदमों में फैसले करने के बजाय पेशियाँ बदलना रह गया है। एक रीडर को १०० मुकदमों में आदेशिका लिखने के लिए अदालत के समय के बाद भी दो से चार घंटे अतिरिक्त काम करना पड़ रहा है। जिस का उसे सरकार की ओर से कुछ भी प्राप्त नहीं हो रहा है।
आज न्यायपालिका का आकार बढ़ाने के सिवा कोई चारा नहीं रह गया है।स्वयं भारत के मुख्य न्यायाधीश ने बताया कि बैंगलोर की एक अदालत में निजी क्षेत्र की एक टेलीकॉम कंपनी ने एक ही दिन में चैक बाउंस होने के ७३००० तिहत्तर हजार मुकदमें निगोशिएबुल इन्स्ट्रूमेंट एक्ट की धारा १३८ के अंतर्गत दाखिल किए हैं।अब लोगों को मुकदमे दाखिल करने से तो रोका नहीं जा सकता है।
पूरे देश में आर्थिक विकास का शोर है। यह आर्थिक विकास जो उद्योगों, वाणिज्य और सेवाओं की बदौलत हो रहा है नए मुकदमों की भीड़ ले कर न्यायालयों में उपस्थित हो रहा है। लेकिन हमारी न्यायपालिका उन्हें सुन ने में अक्षम है।
इधर सक्षम व्यक्ति जिनमें कंपनियाँ, फर्में, संस्थाऐं और अन्य विधिक व्यक्ति भी शामिल हैं, अदालतों के समक्ष ढेर के ढेर मुकदमे ले कर आ रहे हैं। उधर देश का गरीब और मध्यम वर्ग देरी से फैसले होने और कभी कभी नहीं भी होने के अवसरों के कारण अपने वाजिब मुकदमे भी अदालतों के सामने लाने से कतरा रहा है।जिससे मुकदमों की आवक कम हुई है। एक ओर जनता में असन्तोष बढ़ रहा है। दूसरी ओर वकीलों के पास मुकदमों की आवक कम रह गई है।
न्यायपालिका के इस स्थिति तक पहुँचने के लिए हमारी सरकारें जिम्मेदार रही हैं। उन्हों ने इस पर समय रहते ध्यान नहीं दिया। लेकिन इस के लिए हमारे वकील और जज भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। उन्हें इस स्थिति को सरकार के समक्ष समय रहते लाना चाहिए था। आज देश में ऐसी पद्यति विकसित हो गयी है कि सरकार तब तक नहीं सुनती जब तक किसी अभाव के लिए हल्ला नहीं हो जाता। जब तक कोई आंदोलन खड़ा नहीं होता, तब तक सरकार के सिर पर जूँ तक नहीं रेंगती है और समस्याऐं ठण्डे बस्ते में पड़ी रहती हैं। आज जरूरत इस बात की है कि हमारी न्यायपालिका लगातार सरकार को जजों की जरूरत के बारे में अपनी मांग सरकार को पहुँचाए और उसे मीडिया तक भी पहुँचाए जिस से जनता को सही स्थिति की जानकारी मिलती रहे।
दूसरी ओर वकीलों को भी इस दिशा में गोलबंद हो कर सरकार पर दबाव बनाना चाहिए। यह उन के व्यवसायिक हितों का भी मामला है। अधिक मुकदमों का अर्थ अधिक काम और अधिक आमदनी भी तो है। किसी मुकदमे में कई बरसों तक फैसला नहीं होना किसी पक्षकार को लाभ पहुँचा सकता है किसी वकील को नहीं। वकील को तो उस की फीस दस साल में भी वही मिलनी है, जो मुकदमे के दो साल में निर्णय होने पर मिलती है। शीघ्र निर्णय से मुकदमे के दूसरे खर्चों में कमी आने से वकील की फीस में इजाफा ही होगा।
जरुरी है कि वकीलों के संगठन, राजनैतिक दलों के विधिक प्रकोष्ट, वकीलों की बार ऐसोसिएशनें, राज्यों की बार काउंसिलें तथा भारत की बार काउंसिल इस ओर तुरंत ध्यान दें। इस विषय पर विचार करे, सेमीनारें आयोजित कर, जनजागरण का अभियान चलाएं। राजनीतिक दलों पर दबाव बनाएं। जिस से सरकार को इस तरफ ध्यान दे कर न्याय पालिका को सक्षम बनाना पड़े।
तीसरा खंबा मेरे लिए शगल या अपनी किसी कला अथवा ज्ञान को प्रदर्शित करने का माध्यम नहीं है। देश की न्याय प्रणाली को जिस तरह से धीमा जहर दिया जा रहा है उस को सब के सामने लाना और इसे वापस सक्षम बनाने के लिए प्रयत्न प्रारंभ करना ही शुरू से इस का उद्देश्य रहा और हमेशा इस का उद्देश्य न्याय प्रणाली को सक्षम बनाए रखना ही रहेगा।
मकर संक्रांति के बाद से नए कामों का शुभारंभ करने की हमारे यहां यह परम्परा रही है। मैं भी इस मकर संक्रांति पर देश के अपने सभी वकील भाइयों और माननीय न्यायाधीशों से यह विनम्र निवेदन कर रहा हूँ कि इस कि न्याय प्रणाली को सक्षम बनाए रखने और उसे समस्याओं से बाहर लाने का संकल्प करें और तीसरा खंबा के इस काम को आगे बढ़ाएं।
हिन्दी चिट्ठाकार साथियों से भी मेरा यह निवेदन है कि वे इस समस्या के हल में जिस प्रकार का भी योगदान कर सकें करने का प्रयास करें।
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जन जागरण की वास्तव में जरूरत है। अन्यथा आम आदमी तो कोर्ट कचहरी से बिदकता है। यही समझता है कि वहां सच को झूठ और झूठ को सच किया जा सकता है।
आम आदमी की यह सोच बदलनी चाहिये।
एक दिन में 73000 हजार मुकदमे एक ही अदालत में?
बाप रे!
आपका हर आलेख आंख खोल देता है. इन विषयों पर इतनी जानकारी मुझे कभी नहीं मिली थी.
इन विषयों को इतने स्पष्ट शब्दों में लिखने के लिये आभार.
इस लेख में आप ने जो जानकारी दी है वह भयानक है. चिट्ठाकारी द्वारा जो भी योगदान दे सकता हूँ वह करूगा.
एक दिन में 73000 हजार मुकदमे एक ही अदालत में!
सचमुच स्थिति बहुत ही भयावह है!
परंतु यहाँ रतलाम में एक न्यायाधीश महोदय ने जीरो पेडेंसी मुहिम चलाई तो वकीलों ने उनका जुलूस निकाला हाय हाय किया – कारण जो भी रहे हों, वकीलों को इस मुहिम में साथ देना चाहिये था जबकि उनका विरोध किया गया. सभी अगर आपकी सी सोच रखें तो वास्तव में न्यायपालिका सुधर सकती है, अन्यथा तो…