देश भर की अदालतों में मुकदमे बहुत इकट्ठे हो गए हैं। निर्णय बहुत-बहुत देरी से आ रहे हैं, पूरी की पूरी पीढ़ी मुकदमों में खप रही है। जजों को बड़ा आराम है। वे अपने निर्धारित काम के आँकड़े से दो-ढाई गुना काम कर दे रहे हैं। लेकिन किए जाने वाला काम ऐसा है जिस में कोई परेशानी नहीं है। जो जटिल मुकदमे हैं उन में केवल तारीखें बदली जा रही हैं। मेरे जैसे वकील, जिन के पास आते ही जटिल मुकदमे हैं, परेशान हैं कि जो भी मुकदमा आता है वह अदालत में प्रवेश तो कर जाता है लेकिन वहाँ से निकलने का मार्ग नहीं है। मुकदमे न हुए अभिमन्यु हो गए जिन के लिए अदालतें चक्रव्यूह हो गई हैं।
पेशे के लिहाज से यह स्थिति बहुत बुरी है। गलती व्यवस्था की है कि अदालतें जरूरत की चौथाई रह गई हैं। लेकिन मार वकीलों पर पड़ रही है। माना जा रहा है कि वकील मुकदमों को लंबा कर रहे हैं। जैसे इस में उन का कोई जबर्दस्त लाभ हो। किसी भी मुकदमे में वकीलो को निश्चित फीस मिलती है। यदि वह मुकदमा चंद सालों में समाप्त हो जाए तो वकील का उस मुकदमे के प्रति दायित्व समाप्त हो लेता है। लेकिन वकील हैं कि उस दायित्व को साल दर साल ढो रहे हैं। मुवक्किल इस आस से आता है कि उस का काम अदालत से हो जाएगा। लेकिन जब पहली दो-तीन पेशियों में ही साल निकल जाता है तो वह भी मुकदमे के प्रति उदासीन हो जाता है और वकील की फीस के भुगतान के प्रति भी। वकीलों के दफ्तरों की अलमारियाँ और मेजें मुकदमों की फाइलों से भरी पड़ी हैं। लेकिन उन्हें अपने श्रम का उचित प्रतिफल नहीं मिल रहा है। स्थिति यह है कि आज जिला स्तर के न्यायालयों के वकील अपनी संतानों को कम से कम इस व्यवसाय में नहीं लाना चाहते। जो आ रहे हैं वह शायद उन की विवशता है।
गुरूवार को मेरे कोई बीस मुकदमे सूचीबद्ध थे। जिन में से नौ मुकदमे एक ही तरह के थे और अंतिम बहस हेतु नियत थे। ये सभी 97-98 में आरंभ हुए थे। ये सभी पिछले पाँच साल से अंतिम बहस में चले आ रहे हैं। कोई जज इन्हें नहीं सुनना चाहता। गुरूवार को एक मुकदमा ऐसा भी था जिसे उस अदालत का तीसरा सब से पुराना मुकदमा होने का गौरव प्राप्त है और सन् 1984 से अदालत में लंबित है। यह पिछले पंद्रह वर्ष से अंतिम बहस में है। कम से काम छह जज इस मुकदमे में पूरी बहस सुन चुके हैं। मैं एक वकील की हैसियत से छह बार पूरी बहस सुना चुका हूँ, लेकिन किसी जज ने बहस सुन कर भी इस का फैसला नहीं किया। उन्हें ये फाइलें देखते ही परेशानी होने लगती है। मैं ने संबंधित न्यायाधीश को एक दिन पहले ही इन मुकदमों के बारे में बताया था। जिस से वे चाहें तो मुकदमों की फाइलों को पढ़ कर आएँ। लेकिन न्यायाधीश महोदय ने तभी उन मुकदमों की सुनवाई की संभावना से नकार दिया। अगले दिन उन मुकदमों में पेशी बदल गई। जजों द्वारा पुराने और जटिल मुकदमों को टालना आम हो गया है। .यह सिर्फ इस लिए कि उन्हें उन में अधिक श्रम करना होता है। वे इस तरह के एक मुकदमे में लगने वाले समय में तीन-चार आसान मुकदमे निपटाना पसंद करते हैं और इन मुकदमों के बारे में यह आस लगाए बैठे रहते हैं कि उन्हें इन में श्रम करना पड़े उस के पहले उन का यहाँ से स्थानांतरण हो जाए। न्यायाधीशों का भी इस में कोई दोष नहीं है। किसी के भी सामने
की भोजन की थाली में जरूरत से चार गुना अधिक भोजन परोस दिया जाए तो कोई भी स्वादिष्ट और आसानी से खाए जाने वाला रुचिकर भोजन खाएगा और अरुचिकर को छोड़ देंगा।
खैर, जब मैं ने यह सब बातें जज के सामने कुछ आसान भाषा में रखीं तो जज का कहना था कि मुझे भी लगता है कि अब आसान काम अदालत में कम रह गया है। लेकिन अब भी इन मुकदमों से बहुत अधिक आसान काम अभी मौजूद है। मुझे लगा कि याहाँ बांसुरी बजाने से कोई लाभ नहीं है। कभी तो ऐसी इच्छा होती है कि अदालत से कह दिया जाए कि जब तक पुराने मुकदमों की सुनवाई कर के फैसले नहीं दिए जाते मैं नए मुकदमों में काम नहीं करूँगा। लेकिन उन मुकदमों के न्यायार्थी भी मेरे ही सेवार्थी हैं। मैं उन्हें निराश नहीं कर सकता। फिर जज भी यह रवैया अख्तियार कर सकते हैं कि मेरा कोई मुकदमा सुना ही न जाए। ऐसा नहीं है कि यह स्थिति अचानक सामने आ गई हो। मुझे वह वक्त भी याद हैं जब मैं साल में चार सौ से अधिक मुकदमों के निर्णय करवा देता था। लेकिन साल दर साल स्थिति बदलती गई। जब कि अब यह आंकड़ा साल में मुश्किल से पचास-साठ तक पहुँच पाता है। मैं पहले से चार गुना अधिक काम कर के केवल 10-15 प्रतिशत परिणाम दे पा रहा हूँ। लगता है कि इस देश की व्यवस्था ने न्याय देने से अपने हाथ ऊँचे कर दिए हैं।
न्याय व्यवस्था की वर्तमान हालात को देखकर ऐसा लगता है कि मुकदमो को अदालतो में पहुचने से पहले ही निपटा दिया जाए तो ज्यादा अच्छा है |
ये तो सुना करता था कि न्यायपालिका का स्तर गिर रहा है। मुकदमें पेंडिंग ही रह जाते हैं। तारीख पे तारीख डायलॉक किस वेदना से लिखी गई होगी, इसका अंदाजा मुझे पहले ही था। मेरे भी गांव में मेरे बाबा( जब से होश संभाला हूं) केवल मुकदमों की तारीख पर जाते देखता हूं।
लेकिन ये दुर्दशा इस कदर है आपका पोस्ट पढ़ने के बाद मालुम हुआ।
मन बेचैन हो गया है…साहब
दिवेदी साहब , क्या आपको नहीं लगता कि यह भी अपनी स्वार्थ पूर्ती के लिए पहले- दुसरे और तीसरे खम्बे की ही सांठ-गाँठ का नतीजा है ?
यह तो बहुत ही गहरी जानकारी है. बहुत धन्यवाद.
रामराम.
आप यहाँ मौजूद हैं तो जान भी गये, वरना तो क्या पता चलता!
तो 'Justice delayed.. Justice denied ! एक धोखा है ?
कुछ ऎसा होना चाहिये कि घरेलू झगड़ों के विवाद, मनमुटाव इत्यादि पँचायत स्तर पर ही सुलझा लेने चाहियें ।
मैं समझता हूँ कि अनावश्यक मुकदमों की छटनी होनी चाहिये । किसी को साइकिल से ठोकर लग भी जाये, तो वह कोर्ट में जाने की धमकी देकर ही विदा लेता है । ऎसे प्रथम-दृष्टया रिपोर्ट को पुलिस ही अपने स्तर से सुलझा सकती है । बहुधा वादी पक्ष का वकील प्रतिपक्ष को छठी का दूध पिलाने के चक्कर में, तारीख़ पर तारीख़ लेते हुये प्रतिवादी से अन्नप्राशन का भात तक उगलवा लेता है । हमारा असहिष्णु होते जाना भी मुकदमों की बाढ़ का एक कारण है । कुल मिला कर लोचा ही लोचा !
बहुत सुंदर जानकारी दी आप ने, लेकिन जब कोई कानून बन जाये कि कोई भी मुकददमा दो महीने से ज्यादा आदलात मै ना टिके तो फ़िर जजो की नाक मे नकेल जरुर कसेगी, हमारे यहां ६ सप्ताह का समय अधिकतम है, फ़ेसला इस से पहले हो जायेगा
आम आदमी इस वास्तविकता को कैसे जान सकता है । आपने इसका साक्षात्कार करवाया है । धन्यवाद ।
मुकदमे न हुए अभिमन्यु हो गए जिन के लिए अदालतें चक्रव्यूह हो गई हैं…..
आपका कथन पूर्णतया सत्य है .
Arceltis like this are an example of quick, helpful answers.
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मुकदमों के बारे में नयी हकीकत पता चली ! आपके ब्लाग जगत में होने से पहली बार कुछ ऐसे तथ्य उजागर होने लगें हैं जिसे आम आदमी शायद ही कभी समझ पाए ! काश यहाँ हर प्रोफेशनल अपने कार्य के बारे मं खुल कर बताने लगे …
शुभकामनायें भाई जी !!
यदि आप लोग इतने निराश हो गए हैं तो उनकी सोचिए जिनका जीवन ही अधर में लटका हुआ है। क्या कुछ किया नहीं जा सकता?
घुघूती बासूती