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समानता, स्वतंत्रता और एकान्तता – महिला सशक्तिकरण

गतांक से आगे …

समानता (equality), स्वतंत्रता (liberty) और एकान्तता (privacy)

किसी भी सफल न्याय प्रणाली के लिये समानता (equality), स्वतंत्रता (liberty) और एकान्तता, (privacy) का अधिकार महत्वपूर्ण है।  यह लैंगिक न्याय के परिपेक्ष में भी सच है।  यह बात न्यायालयों ने कई निर्णयों में कहा है।  आइये इसमें से कुछ को देखें।

समान काम, समान वेतन Equal pay for equal work

उन्मुक्त जी का यह लेख महिलाओं की अपने अधिकारों की कानूनी लड़ाई के बारे में है। इसमें महिला अधिकार और सशक्तिकरण की चर्चा है। प्रस्तुत है इस की  आठवीं और अंतिम कड़ी …

समानता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद १४ से १८ में है पर यह लैंगिक न्याय के दायरे में ‘समान काम, समान वेतन’ के दायरे में महत्वपूर्ण है।  ‘समान काम, समान वेतन’ की बात संविधान के अनुच्छेद ३९ (घ) में कही गयी है पर यह हमारे संविधान के भाग चार ‘राज्य की नीति के निदेशक तत्व’ (Directive Principles of the State policy) के अन्दर है।  यह न्यायालय द्वारा क्रियान्वित (Enforce) नहीं किया जा सकते है पर देश को चलाने में इसका ध्यान रखना आवश्यक है।

महिलायें किसी भी तरह से पुरूषों से कम नहीं है।  यदि वे वही काम करती है जो कि पुरूष करते हैं तो उन्हें पुरूषों के समान वेतन मिलना चाहिये।  यह बात समान पारिश्रमिक अधिनियम (Equal Remuneration Act) में भी कही गयी है और इसे (M/s Mackinnon Mackenzie and Co. Ltd. Vs. Audrey D’costa and other) (मैकेन्निन केस) में लागू किया।

इसमें महिला आशुलिपिक को पुरूषों से कम वेतन मिलता था।  कम्पनी के अनुसार केवल महिलायें ही व्यक्तिगत आशुलिपिक (Confidential Stenographer) नियुक्त की जा सकती है और उनका वर्ग पुरूष आशुलिपिक से अलग है। इसलिये उन्हें कम वेतन दिया जाता है।  उच्चतम न्यायालय ने इसे नहीं माना। न्यायालय का कहना था कि,

‘If only women are working as Confidential Stenographers it is because the management wants them there. Women are neither specially qualified to be Confidential Stenographer nor disqualified on account of sex to do the work assigned to the male Stenographers. Even if there is a practice in the establishment to appoint women as Confidential Stenographer such practice can not be relied on to deny them equal remuneration due to them under the Act.’

महिलायें व्यक्तिगत आशुलिपिक बनने के लिये न तो खास तौर से शिक्षित है न ही वे लिंग के कारणों से किसी अन्य कार्य करने के लिये अक्षम हैं। यह प्रबंधतंत्र की नीति है कि वे महिलाओं को व्यक्तिगत आशुलिपिक बनाते हैं।  यदि वे इस तरह की नीति अपनाते हैं तो इस कारण वे महिलाओं को पुरूषों के बराबर वेतन देने को मना नहीं कर सकते हैं।

स्वतंत्रता (liberty)

मौलिक अधिकार, संविधान के भाग तीन में हैं।  यह सारे, कुछ न कुछ, स्वतंत्रता के अलग अलग पहलुवों से संबन्ध रखते हैं पर इस बारे में संविधान के अनुच्छेद १९ तथा २१ महत्वपूर्ण हैं।  अनुच्छेद १९ के द्वारा कुछ स्पष्ट अधिकार दिये गये हैं और जो अनुच्छेद १९ या किसी और मौलिक अधिकार में नहीं हैं वे सब अनुच्छेद २१ में समाहित हैं।  आइये इस सम्बन्ध में C.B.Muthamma IFS Vs. Union of India (मुथन्ना केस) को समझें।

विदेश सेवा के नियमों के अन्दर ,

  • विवाहित महिलाओं का विदेश सेवा में चयन नहीं किया जा सकता था;
  • विदेश सेवा में काम करने वाली अविवाहित महिला को, शादी करने से पहले सरकार से अनुमति लेनी पड़ती थी; और
  • यदि सरकार इस बारे में संतुष्ट है कि उसका परिवार उसके रास्ते में आयेगा तो वह उसकी सेवायें समाप्त कर सकती थी।

यह नियम केवल महिलाओं के लिए था पुरूषों के लिए नहीं। यह नियम, १९७९ में, मुथन्ना केस में अवैध घोषित कर दिया गया। न्यायालय ने कहा कि,

‘Discrimination against women, in traumatic transparency, is found in this rule……if the family and domestic commitments of a woman member of the service are likely to come in the way of efficient discharge of duties, a similar situation may well arise in the case of a male member. In these days…one fails to understand the naked bias against the gentler of the species…

And if the executive….makes [ such] rules….[then] the inference of die..hard allergy to gender parity is inevitable.’

इन नियमों में महिलाओं के खिलाफ भेद-भाव स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ता है। यदि पारिवारिक एवं घरेलू जिम्मेदारियां महिला कार्यक्षमता को प्रभावित कर सकती हैं तो यह बात पुरूषों पर भी लागू होती है। महिलाओं के प्रति इस समय भी इस तरह का पूर्वाग्रह हमारी समझ के बाहर है।

यदि कार्यपालिका इस तरह के नियम बनाती है उससे महिलाओं के प्रति भेदभाव स्पष्ट रूप से झलकता है।

एकान्तता (privacy)

हमारे संविधान का कोई भी अनुच्छेद, स्पष्ट रूप से एकान्तता की बात नहीं करता है। अनुच्छेद २१ स्वतंत्रता एवं जीवन के अधिकार की बात करता है पर एकान्तता की नहीं। १९९२ में मुकदमे Neera Mathur Vs. Life Insurance Corporation में उच्चत्तम न्यायालय ने एकान्तता के अधिकार को, अनुच्छेद २१ के अन्दर, स्वतंत्रता एवं जीवन के अधिकार का हिस्सा माना।

नीरा माथुर, जीवन बीमा निगम में प्रशिक्षु थीं। अपने प्रशिक्षण के दौरान उसने अवकाश लिया पर जब वह वापस आयीं तो उनकी सेवायें समाप्त कर दी गयी। उन्होने दिल्ली उच्च न्यायालय में गुहार लगायी।  निगम ने न्यायालय को बताया कि, उसे नौकरी से इसलिये हटा दिया गया क्योंकि उसने नौकरी पाने के समय झूठा घोषणा पत्र दिया था।

निगम में सेवा प्राप्त करने से पहले एक घोषणा पत्र देना होता है। महिलाओं को इसमें कुछ खास सूचनायें बतानी पड़ती थीं, जैसे कि,

  • रजोधर्म की आखिरी तिथि क्या है?
  • क्या वे गर्भवती हैं?
  • उनका कभी गर्भपात हुआ है कि नहीं, इत्यादि।

अवकाश के दौरान नीरा को बिटिया हुयी थी और जीवन बीमा निगम के अनुसार उसने घोषणा पत्र में जो रजोधर्म की आखिरी तारीख लिखी थी यदि वह सही है तो उसे यह बिटिया नहीं पैदा हो सकती थी।  इसलिये वे इस घोषणा पत्र को झूठा बता रहे थे।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने नीरा माथुर की याचिका खारिज कर दी पर उच्चतम न्यायालय ने उसकी अपील स्वीकार कर, उसे सेवा में वापस कर दिया।  उनके मुताबिक यह सूचना किसी महिला की एकान्तता से सम्बन्धित है।  न्यायालय ने कहा कि,

‘The particulars to be furnished under columns (iii) to (viii) in the declaration are indeed embarrassing if not humiliating.’

इस तरह की सूचना मांगना यदि अपमानजनक नहीं है तो कम से कम शर्मिन्दा करने वाली है।

निष्कर्ष (Conclusion)

हम लोग इस समय २१वीं सदी में पहुंच रहे हैं।  लैंगिक न्याय की दिशा में बहुत कुछ किया जा चुका है पर बहुत कुछ करना बाकी भी है।  क्या भविष्य में महिलाओ को लैंगिक न्याय मिल सकेगा।  इसका जवाब तो भविष्य ही दे सकेगा पर लगभग ३० साल पहले रॉबर्ट केनेडी ने कहा था,

‘Some men see the things as they are and say why, I dream things that never were and say why not?’

केवल कानून के बारे में बात कर लेने से महिला सशक्तिकरण नहीं हो सकता है।  इसके लिये समाजिक सोच में परिवर्तन होना पड़ेगा।  फिर भी, यदि हम लैंगिक न्याय के बारे में सोचते हैं, इसके बारे में सपने देखते हैं – तब, इंशा अल्लाह, आज नहीं तो कल, हम उसे अवश्य प्राप्त कर सकेंगे।

-उन्मुक्त

(समाप्त)