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स्टाम्प ड्यूटी में कमी और दस्तावेज का निरस्तीकरण

समस्या-

मैं उत्तर प्रदेश का रहने वाला हूँ। मेरी दादी के द्वारा एक कृषि भूमि का पट्टा इस्तमुरारी (वर्ग ४ अ का) वर्ष १९९६ में लिया गया था। उसके दो वर्ष के बाद उसी भूमि का बैनामा मेरे पिता के द्वारा  उसी जमींदार से लिया गया जिससे दादी ने पट्टा लिया था। मेरी दादी और पापा की मृत्यु हो चुकी है। अभी एक व्यक्ति ने शिकायत दर्ज कराई है कि मेरे दादी के द्वारा जो पट्टा लिया गया था।  उस में स्टाम्प कि कमी है। पट्टे के शर्तों के अनुसार १५०००/- एकमुश्त और २/- सालाना का लगान दिया गया है और उसपर ११/- का स्टाम्प अदा है।  कृपया मेरे निम्न प्रश्नों का समाधान करें?
१- क्या स्टाम्प कि कमी के कारण जितने मूल्य का स्टाम्प कम है उसकी वसूली की जा सकती है?
२- यदि हम स्टाम्प की कमी को पूरा न करना चाहे तो क्या उस स्थिति में क्या होगा हमारे विरुद्ध आर सी जारी होगी या हमारा पट्टा निरस्त कर दिया जायेगा?
३- क्या इस पट्टे को निरस्त कराने का कोई आधार है ?

-गगन जायसवाल फ़ैजाबाद

समाधान-
अशोक कुमार शुक्ला

गन जायसवाल की समस्या उत्तरप्रदेश की स्थानीय राजस्व विधि से संबंधित है। तीसरा खंबा ने उत्तर प्रदेश के राजस्व प्रशासनिक सेवा के अधिकारी श्री अशोक कुमार शुक्ला से इस प्रश्न के समाधान के लिए सहायता का अनुरोध किया जिसे न केवल उन्हों ने सहजता के साथ स्वीकार किया अपितु शीघ्रता के साथ हमें उत्तर भी प्रेषित किया। उन के अनुसार समाधान निम्न प्रकार है-

प्रश्नकर्ता का प्रश्न बहुत स्पष्ट नहीं है। फिर भी उपलब्ध सूचनाओं के आलोक में उत्तर देने का प्रयास करते हुये कुछ सामान्य जानकारियों का समावेश भी इस उत्तर में किया जा रहा है। इस प्रश्न में प्रश्नकर्ता की दादी के द्वारा 1996 में कृषि भूमि का पट्टा प्राप्त करने का उल्लेख है तथा पट्टे का प्रकार इस्तमुरारी बताया गया है। पुनः दो वर्ष बाद उसी भूमि का उसी जमींदार से प्रश्नकर्ता के पिता द्वारा बैनामा कराये जाने का उल्लेख है। इस प्रकार एक ही भूमि पर दो बार प्रदेशन की कार्यवाही किये जाने का औचित्य प्रश्नकर्ता की दादी के अन्य उत्तराधिकारियों (यथा प्रश्नकर्ता के चाचा आदि को ) उत्तराधिकार से वंचित रखने के उद्देश्य से की गयी प्रतीत होती है।

प्रश्नकर्ता ने इस्तमरारी पट्टे का उल्लेख किया है। पहले उसे समझ लिया जाए। वास्तव में ‘इस्तमरारी’ फारसी का शब्द है, जिसका अर्थ ‘शाश्वत या मुश्तकिल’ होता है। 1952 में उत्तर प्रदेश में जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यव्स्था अधिनियम लागू होने से पूर्व तत्कालीन आगरा प्रान्त के जमींदार ‘पटटा इस्तमरारी’ शब्द  का उपयोग किया करते थे। जबकि अवध के तालुकेदार ‘पटटा दवामी’ शब्द  का। यह ‘दवामी’ अरबी का शब्द है, जिसका अर्थ है ‘सदैव के लिये’।  व्यवहार में दोनो का अर्थ होता था ‘सदा के लिये पट्टा’।

माननीय उच्च न्यायालय उत्तर प्रदेश की इलाहाबाद खण्डपीठ द्वारा अजीजुन्निसा बनाम तस्द्दुक तथा शीतला बक्श बनाम गुलाब सिंह के निर्णय में यह व्यवस्था दी थी कि ‘पट्टा दवामी’ का अर्थ केवल पट्टाधारी के जीवनकाल से है न कि पुस्त दर पुश्त।  किन्तु  सही विचार यह है कि जब तक स्पष्टतया अन्यथा न वर्णित हो ‘पट्टा इस्तमरारी‘ अथव ‘पट्टा दवामी’ में पट्टेदार को पुश्त दर पुश्त भूमि धारण करने का अधिकार बना रहता है। इस प्रकार प्रश्नकर्ता की दादी के द्वारा प्राप्त किया गया ‘पट्टा इस्तमरारी’ के आधार पर उसकी उत्तरोत्तर पीढियों तक भूमि धारण करने के अधिकार बना रहता।

ब बात करते हैं पट्टे अथवा बैनामे की वैधानिकता की। ‘पट्टा इस्तमरारी’ के निष्पादन के अथवा प्रश्नकर्ता के पिता के पक्ष में पुनः उसी भूमि का बैनामा निष्पादित करते समय इस तथ्य पर विचारण आवश्यक है कि क्या बैनामा कर्ता अथवा पट्टा निष्पादन कर्ता को उस भूमि का बैनामा अथवा पट्टा करने का अधिकार था अथवा नहीं? इस संबंध में उत्तर प्रदेश में लागू जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 (यथा संशोधित) के अनुसार प्रदेश मे भूमि धारण कर सकने वाले भूमिधर की तीन श्रेणियों की व्यवस्था देता है जिनमें प्रथम श्रेणी संक्रमणीय अधिकार युक्त भौमिक श्रेणी है, दूसरी असंक्रमणीय अधिकार युक्त श्रेणी तथा तीसरी श्रेणी सरकारी पट्टेदारों की है। उत्तर प्रदेश में भूमि स्वामित्व संबंधी अभिलेख अर्थात खतौनी (जमींदारी विनाश क्षेत्र) के उद्धरण में शीर्ष भाग पर यह अंकित होता है कि वह किस श्रेणी का भूमिधर है, अर्थात उसे अपने भौमिक अधिकारों को बैनामे आदि के माध्यम से हस्तानान्तरण का अधिकार प्राप्त है अथवा नही। उत्तर प्रदेश के जिन चुनींदा क्षेत्रों में जमींदारी विनाश कानून नहीं लागू हो पाया था वहां के भू अभिलेखों अर्थात खतौनी (गैर जमींदारी विनाश क्षेत्र) में संयुक्त प्रान्त  काश्तकारी अधिनियम 1939 लागू है। प्रश्नकर्ता के द्वारा दिये गये विवरण से यह स्पष्ट नहीं है कि हस्तान्तरित भूमि (जमींदारी विनाश क्षेत्र) में स्थित है अथवा (गैर जमींदारी विनाश क्षेत्र) में । यदि प्रश्नकर्ता द्वारा खतौनी की नकल संलग्न की गयी होती तो यह आसानी से समझा जा सकता था कि हस्तान्तरित भूमि की श्रेणी कौन सी है।

हरहाल उपलब्ध सूचनाओं के आलोक में उत्तर यह है कि 1996 में जिस भूमि का शाश्वत पट्टा निष्पादित कर दिया गया था पुनः दो वर्ष बाद उसी भूमि का बैनामा किये जाने का औचित्य पट्टे के आधार पर उत्तरोत्तर पीढियों तक प्राप्त होने वाले उत्तराधिकार (यदि प्रश्नकर्ता के पिता के अतिरिक्त अन्य कोई हो तो) के स्थान पर मात्र प्रश्नकर्ता के पिता को ही उत्तराधिकार हासिल करने के उद्देश्य से किया हुआ जान पडता है। यदि ऐसा है तो यह प्रश्नकर्ता के हित में होगा कि वह अपने पिता के पक्ष में निष्पादित बैनामे के आधार पर राजस्व अभिलेखों में अपने नाम का इंन्द्राज कराने की कार्यवाही करे। दादी के पक्ष में निष्पादित पट्टा इस्तमारी में स्टाम्प कमी का वाद योजित होना प्रश्नकर्ता की दादी के अन्य उत्तराधिकारियों की ओर से उठाया गया सोचा समझा कदम हो सकता है जिससे पट्टे की वैधानिकता के आधार पर प्रश्नगत भूमि पर वे भी अपने उत्तराधिकार संबंधी दावा मजबूत कर सकें।

प्रश्नकर्ता के प्रश्न थे कि-  १- क्या स्टाम्प कि कमी के कारण जितने मूल्य का स्टाम्प कम है उसकी वसूली की जा सकती है? २- यदि हम स्टाम्प की कमी को पूरा न करना चाहे तो क्या उस स्थिति में क्या होगा हमारे विरुद्ध आर सी जारी होगी या हमारा पट्टा निरस्त कर दिया जायेगा? ३- क्या इस पट्टे को निरस्त कराने का कोई आधार है ?

क्त प्रश्नों के साधारण उत्तर इस प्रकार हैं-

जीहां! यदि किसी भी विलेख में स्टाम्प की कमी पायी जाती है तो स्टाम्प वाद के निर्णयानुसार अवशेष स्टाम्प की कमी तथा आरोपित दण्डात्मक धनराशि की वसूली आर0 सी0 जारी करते हुये की जा सकती है। परन्तु स्टाम्प की कमी को पूरा न करने पर भी पंजीकृत विलेख को राजस्व न्यायालय निरस्त नहीं कर सकता क्यों कि उसे ऐसा करने का अधिकार नहीं है। दस्तावेज को केवल दीवानी न्यायालय द्वारा ही निरस्त किया जा सकता है। जिसके लिये संबंधित व्यक्ति को स्टाम्प ड्यूटी अदा न करने के आधार पर दीवानी न्यायालय में पट्टा निरस्तीकरण के लिए दीवानी वाद प्रस्तुत करना होगा।

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