अमरीका की तुलना में भारत में न्याय की संभावना मात्र 10 प्रतिशत
|विगत आलेख क्या हम न्यायपूर्ण समाज की स्थापना से पलायन का मार्ग नहीं तलाश रहे हैं ? पर तीन महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएँ आईँ।संगीता पुरी जी ने कहा कि ‘सजा गल्ती की निरंतरता को रोकने के लिए दी जाती है .. न्याय के क्षेत्र में होनेवाली देरी और खर्च के कारण तो उतने दिनों तनाव में रहने से तो अच्छा है .. एक दो बार हुए किसी की गल्ती को कुछ लोगों के हस्तक्षेप से सुलह करवाकर माफी वगैरह मांग मंगवाकर समस्या को हल कर लिया जाए !!’ काजल कुमार ने कहा ‘जब न्यायव्यवस्था बढ़ते मुक़दमों को नहीं निपटा पा रही है तो हमें वैकल्पिक उपायों के बारे में सोचना होगा. मसलन ओम्बडसमैन व राजीनामा जैसी संस्थाओं को मज़बूत करना होगा ताकि ये न्यायालयों के स्थानापन्न का रूप ले सकें.’ उन्हों ने यह भी कहा कि ‘आज हालत ये है कि निचले न्यायालयों को एक मिनट के लिए छोड़ भी दिया जाए तो उच्च-न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय के सम्मुख अधिकांश मामले ऐसे आते हैं जिनमें कानून की व्याख्या को कोई सवाल नहीं होता किन्तु उन्हें यही जामा पहना कर पेश किया जाता है. जबकि, इन न्यायालयों को इस तरह के मुक़दमों को सरसरी नज़र में खारिज कर देना चाहिये.’ इस के अलावा ताऊ रामपुरिया जी की राय थी कि ‘असल में कानून में जो झौल है उसे खत्म करने की जरुरत है, ये मेरा अपना निजी सोच है जिससे न्यायिक प्रक्रिया उलझे नही और त्वरित न्याय मिल सके.’
संगीता जी ने जो राय रखी वह एक आम व्यक्ति की सोच है जो अपर्याप्त और न्याय प्राप्त करने के कष्टप्रद न्यायप्रणाली के प्रभाव से उत्पन्न हुई है। न्याय के क्षेत्र में केवल अपराध ही नहीं आते हैं। आज जीवन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिस में न्याय प्राप्ति की आवश्यकता नहीं हो। वस्तुत स्थिति यह है कि देश के तमाम सक्षम लोग कानून का उल्लंघन करते हैं और सोचते हैं जो वे करेंगे वही न्यायपूर्ण है। लेकिन साधारण लोगों के पास इस अन्याय से उबरने का एक मात्र उपाय न्यायिक संस्थाओँ के पास जाना है। यदि वहाँ भी न्याय न मिले और समझौते की राह दिखाई जाए जहाँ फिर उसी अन्याय का सामना करना पड़े तो इस वैकल्पिक न्याय व्यवस्था से क्या लाभ है। सही और उचित न्याय तो वही है जो न्यायालय में सबूतों, सचाई और कानून के आधार पर प्राप्त हो। इस तरह वैकल्पिक व्यवस्थाएँ वास्तविक न्याय से पलायन करने की एक तदर्थ व्यवस्था है। अमरीका में दस लाख की आबादी के लिए 110 जज नियुक्त हैं जब कि हम भारत में केवल 11 से काम चला रहे हैं। इस तरह अमरीका की तुलना में भारत में न्याय की संभावना मात्र 10 प्रतिशत है। क्या भारत जैसा देश दस प्रतिशत न्याय से काम चला सकता है? और यह कहा जा सकता है कि हम न्याय कर रहे हैं। वैकल्पिक प्रणालियों का लाभ भी तभी मिल सकता है जब मूल न्यायिक व्यवस्था पर्याप्त हो। तब समझौते से निकाले गए हल अधिक न्यायपूर्ण हो सकेंगे। क्यों कि तब उन के पीछे सोच यह नहीं होगी कि वह न्याय की लंबी, उबाऊ, थकेलू और मारक व्यवस्था से पिंड छुड़ाने के लिए समझौता कर लेना बेहतर है।
ताऊ जी की सोच हमेशा यथार्थ होती है। उन्हों ने कानून के झोल की बात कही है। जब रस्सी पूरी तनी हुई नहीं बंधी होती है तो उस में झोल आ जाना स्वाभाविक है। आज भारतीय अदालतों के पास अमरीका की अदालतों स
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6 Comments
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honesty project democracy जी की टिप्प्णी से सहमत है जी, धन्यवाद
बिल्कुल सत्य कहा आपने.
रामराम.
मूल समस्या न्यायिक व्यवस्था में बैठे लोगों के चरित्र का है ,अब देखिये एक जज अपनी मेहनत और ईमानदारी से 30000 मुकदमों को निपटा देता है साल में वहीँ एक भ्रष्ट जज 30 मुकदमे भी नहीं निपटा सकता ,इनकी जवावदेही स्पष्ट नहीं है इनके ऊपर शिकायत पर ठोस कार्यवाही की कोई व्यवस्था नहीं है जिससे न्याय की जगह अन्याय हो रहा है …भ्रष्ट जजों और वकीलों के गठजोड़ ने पूरी न्यायिक प्रक्रिया को सड़ाने का काम किया है ..
रक्षाबंधन पर हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें!
बहुत बढ़िया लिखा है आपने! शानदार पोस्ट!