आलोचना नहीं, तो हम न्यायपालिका जितनी निष्पक्ष रह गई है, उसे भी खो देंगे
|वर्षान्त आ गया है। मैं जब इस लेख को लिखने बैठा हूँ, उस के ठीक दो घंटे बाद साल 2010 का आखिरी दिन आरंभ हो चुका होगा, फिर चौबीस घंटे बाद हम सब एक नए साल में प्रवेश कर जाएंगे। बिना कुछ बदले, जैसे के तैसे। लेकिन ऐसा नहीं है कि पूरे साल में कुछ नहीं बदला। बहुत कुछ हुआ है, और साल के अंत में बहुत सी बहसें मौजूद हैं जो नए साल में भी साथ रहेंगी। मसलन महंगाई को हम साथ ले चलेंगे। प्रधानमंत्री पूरे साल कहते रहे कि हम ने महंगाई को काबू में लाने के लिए ठोस प्रयत्न किये हैं, शीघ्र ही नतीजे सामने आएंगे। लेकिन नतीजे आते उस के पहले हम नए साल में पहुँच रहे हैं और आखिरी सप्ताह में महंगाई बढ़ने की दर 14 प्रतिशत से ऊपर है। ऐसा ही होता है जब हम मुनाफा कमाने वाली ताकतों को खुला छोड़ देते हैं। भ्रष्टाचार के कारण उन पर पहले ही नियंत्रण नहीं कर पा रही सरकार कानूनन और प्रशासनिक रूप से उन्हें और ढील दे देती है। अब वे ताकतें बेकाबू हो चुकी हैं और सरकार के बस के बाहर हैं। यह कहा जा सकता है कि हमारा समूचा प्रभावशाली राजनैतिक तंत्र इन ताकतों के कब्जे में है। जनता नतीजे भुगत रही है और हाकिम लाचार हैं। इस स्थिति का एक मजबूत कारण यह भी है कि हमारी सरकारों ने न्यायिक तंत्र को बेकार की चीज समझ रखा है। उसे शायद वे फिजूलखर्ची भी समझते हैं। हमारे न्यायिक तंत्र की जितनी प्रशंसा दुनिया भर में होती है, शायद वह उस के काबिल भी नहीं रहा है। खानसामा भोजन अच्छा बनाता है, लेकिन सिर्फ पाँच व्यक्तियों के लिए। पच्चीस के लिए बनाना उस के बस का नहीं। कार्यपालिका और संसद ने न्यायिक तंत्र को ऐसा ही खानसामा बना रखा है जो देश की बीस फीसदी आबादी के लिए तो पर्याप्त है लेकिन सौ फीसदी के लिए रोटियाँ बेलनी पड़ रही हैं। यदि जल्दी ही रसोई में चार और खानसामे नहीं दिए गए तो यह खानसामा जल्द ही दम तोड़ने वाला है।
न्यायिक जगत में इस साल निचली अदालतों के दो फैसले न केवल राष्ट्रीय बहस में आए, अंतर्राष्ट्रीय जगत में भी उन की चर्चा हुई और हो रही है। पहला फैसला भोपाल गैस दुखान्तिका के अपराधियों का मामूली सजाएँ पाना रहा। जब इस की चर्चा होने लगी तो पता लगा कि जिन लोगों को सजाएँ हुई वे केवल कारकून थे उन का मुखिया तो दूर अमरीका में सुखद सेवा निवृत्त जीवन बिता रहा है। इस में सरकार की कमजोरियाँ सामने आई, कि किस तरह उसे भारत से बहुत ही सफाई से पूरी सुविधा के साथ निकल जाने दिया गया। वहीं न्यायपालिका की यह कमजोरी भी सामने आई कि सर्वोच्च न्यायालय ने उस अपराध को ही मामूली अपराध बना दिया जिस ने एक ही रात में पंद्रह हजार से अधिक जानें लील ली थीं और उस से कई गुना अधिक मनुष्यों को जीवन भर के लिए अपंग और बीमार बना कर लाचार जीवन जीने को मजबूर कर दिया था। जज साहब ने यह कह कर अपनी सफाई दी कि उन के सामने कोई पुनर्विचार याचिका ही नहीं आई थी। देश भर के लोगों की आवाज की गूंज पर सरकार ने उपचारात्मक याचिका दाखिल की तो सर्वोच्च न्याय पीठ ने उसे सुनवाई के लिए स्वीकार कर तुरंत जनता के असंतोष को विराम दिया।
दूसरा मामला अभी गर्म है। छ्त्तीसगढ़ के एक अतिरिक्त सेशन न्यायालय ने एक समाजसेवी चिकित्सक को राजद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई तो देश भर के सामाजिक कार्यकर्ताओं और मीडिया ने हल्ला कर द
More from my site
3 Comments
@Raviratlami
रवि भाई,
यहाँ किसी निर्णय की जन आलोचना पर अपनी बात मैंने कही है। निर्णय पर अपना अभिमत नहीं रखा है। निर्णय मैं ने पढ़ा है और उसे मैंने न्याय के मानदंड़ों के अनुरूप नहीं पाया। समय मिलते ही उस की विवेचना अवश्य ही सब के सामने रखूंगा। पूर्व न्यायाधीशों ने इस निर्णय की आलोचना यूँ ही नहीं कर दी है, उस के पीछे ठोस आधार हैं।
1 – इस निर्णय पर आपकी राय का इंतजार है.
2 – मैंने इंडियन एक्सप्रेस में विस्तृत रूप से पढ़ा है कि क्या आरोप सिद्ध हुए और किन आरोपों पर सजा दी गई. इस हिसाब से तो यह सजा सही प्रतीत होती है. फिर बेकार की चिल्ल-पों क्यों?
दिनेश जी अब क्या कहे राज तो सब को मालूम हे, बस जनता भुगत रही हे, ओर चोर उच्चके ऎश कर रहे हे, बहुत सुंदर ढंग से आप ने लेख मे सभी तथ्यो को लिखा, धन्यवाद