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औद्योगिक विवाद अधिनियम की वर्तमान व्यवस्था में सूराख की कोशिश

ल की पोस्ट पर मैं ने बताया था कि औद्योगिक विवाद अधिनियम में किए जाने वाले संशोधनों के परिणाम क्या होंगे? इसी पोस्ट में मैं ने इस संशोधन अधिनियम की धारा 4 व 5 के द्वारा किए जाने वाले संशोधनों पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी जिन के द्वारा केन्द्रीय उप मुख्य श्रम आयुक्तों और राज्यों के संयुक्त श्रम आयुक्तों को श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों के पीठासीन अधिकारियों के पदो पर नियुक्ति का मार्ग खोला जा रहा है। मेरी आपत्ति का मुख्य कारण था कि ये दोनो पद ऐसे हैं जिन पर काम करने वाले व्यक्तियों की न्यायिक क्षमता और निष्पक्षता हमेशा संदेह के घेरे में रहती है। जैसी हमारी व्यवस्था है उस में इन पदों पर काम करने वाले व्यक्तियों का देश के उद्योगपतियों से संपर्क और उन के प्रभाव में रहना स्वाभाविक है। यह भी सही है कि इन पदों पर काम कर रहे कुछ लोग अवश्य ही पूरी योग्यता और शुचिता से काम कर रहे होंगे। लेकिन अधिकांश के लिए कोई भी ऐसा सोचेगा तो भारी गलती करेगा। 
प्रस्तावित संशोधन विधेयक का प्रासंगिक अंश निम्न  प्रकार है ……

4. In section 7 of the principal Act, in sub-section(3), after clause (e), the following  clauses shall be inserted, namely:— 
“(f) he is or has been a Deputy Chief Labour Commissioner (Central) or Joint  Commissioner of the State Labour Department, having a degree in law and at least  seven years’ experience in the labour department including three years of experience  as Conciliation Officer:  Provided that no such Deputy Chief Labour Commissioner or Joint Labour  Commissioner shall be appointed unless he resigns from the service of the Central Government  or State Government, as the case may be, before being appointed as the presiding officer; or  (g) he is an officer of Indian Legal Service in Grade III with three years’ experience  in the grade.”. 
5. In section 7A of the principal Act, in sub-section (3), after clause (aa), the following  clauses shall be inserted, namely:— 
“(b) he is or has been a Deputy Chief Labour Commissioner (Central) or Joint  Commissioner of the State Labour Department, having a degree in law and at least  seven years’ experience in the labour department including three years of experience  as Conciliation Officer:  Provided that no such Deputy Chief Labour Commissioner or Joint Labour  Commissioner shall be appointed unless he resigns from the service of the Central  Government or State Government, as the case may be, before being appointed as the  presiding officer; or  (c) he is an officer of Indian Legal Service in Grade III with three years’ experience  in the grade.”.    

स संशोधन को किए जाने का कारण और आशय यह बताया गया है कि श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों को पर्याप्त मात्रा में अच्छे न्यायाधीश उपलब्ध नहीं होते जिस के कारण वे अक्सर खाली पड़े रहते हैं और ओद्योगिक विवादों के निपटान में देरी होती है। लेकिन यह आधार पूरी तरह अनुचित है। वास्तव में अच्छे न्यायाधीश नहीं होने के कारण कुछ भिन्न हैं। उन में सब से प्रमुख है कि उन्हें काम करने के लिए आवश्यक पर्याप्त सुविधाएँ प्रदान नहीं की जाती हैं। वे राज्य सरकारों से सुविधाओं की मांग करते रहते हैं लेकिन राज्य सरकारें उन की बिलकुल नहीं सुनती हैं। मसलन बहुत से अधिकरणों में टाइप मशीनें ही तीस-तीस साल पुरानी हैं वे कम्प्यूटरों की मांग कर रहे हैं लेकिन राज्य सरकार सुनती नहीं है। अधिकरणों में कर्मचारी सेवा निवृत्त हो जाते हैं उन के स्थान पर नए कर्मचारी नियुक्त नहीं किए जाते हैं। पद रिक्त पड़े रहते हैं। अब दो कर्मचारी तो छह का काम नहीं कर सकते। राज्य सरकारों के लिए औद्योगिक विवादों का निपटारा उतना अहम् मसला नहीं है अपितु उन का निपटारा न होना और श्रमिक पक्ष का निपटारे की आस में इन अधिकरणों के चक्कर काट काट कर थक जाना और मर जाना अधिक अहम बात है औऱ राज्य सरकारें ऐसा होने देतीं हैं। उन की प्रतिबद्धता उद्योगपतियों के साथ है कर्मकारों के साथ नहीं।
फिर यदि आप को औद्योगिक न्यायाधि

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