क्यों नहीं मिलते न्यायाधीश पदों के लिए योग्य व्यक्ति ?
|‘भारतीय न्यायिक दृष्टिकोण-2022’ विषय पर अखिल भारतीय न्यायाधीश एसोसिएशन के दो दिवसीय अखिल भारतीय न्यायाधीश सम्मेलन के शुभारंभ के अवसर पर बोलते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अल्तमश कबीर ने स्वीकार किया किया कि राजस्थान में उच्च न्यायालय में नियु्क्ति हेतु योग्य व्यक्ति नहीं मिल रहे हैं। इसी अवसर पर राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अरुण मिश्रा ने प्रदेश में अदालतों की संख्या को कम बताते हुए और अदालतें खोलने की जरूरत पर बल दिया है।
उच्च न्यायालयों में न्यायाधीश वकीलों से सीधी भर्ती द्वारा और उच्च न्यायिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारियों में से चयन के माध्यम से नियुक्त किए जाते हैं। वकीलों में से तो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद के लिए योग्य व्यक्ति प्राप्त हो जाते हैं लेकिन उच्च न्यायिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारियों में से योग्य व्यक्तियों का मिलना कठिन हो रहा है तो इस के कारणों का अनुसंधान किया जाना चाहिए। जो व्यक्ति अपने बीस-पच्चीस वर्ष न्यायिक सेवा में व्यतीत करता है उसे तो अधिक योग्य होना चाहिए। आखिर उस के पास मुकदमों की सुनवाई का अधिक अनुभव होता है। फिर क्या कारण है कि वह उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होने योग्य योग्यता प्राप्त नहीं कर पाता है?
वस्तुतः इस का प्रश्न का उत्तर राजस्थान के मुख्य न्यायाधीश अरुण मिश्रा के वक्तव्य में छिपा है। उन का कहना है कि राजस्थान में पर्याप्त संख्या में न्यायालय नहीं है। उन्हों ने अपने वक्तव्य में एक तथ्य और नहीं बताया कि राजस्थान में जितने न्यायालय हैं उन में से बीस प्रतिशत न्यायालय न्यायाधीशों के अभाव में रिक्त पड़े हैं। एक और तो निम्नतम स्तर पर न्यायाधीशों की भर्ती की प्रक्रिया को नौकरशाही के हवाले कर दिया गया है कि वह आवश्यकता के अनुसार न्यायाधीशों की भर्ती नहीं कर पाती। जब तक वह रिक्त पदों को भरने लायक न्यायाधीशों को तैयार करती है तब तक उतने ही पद और रिक्त हो जाते हैं। न्यायायाधीशों की भर्ती की योजना इस तरह की होनी चाहिए कि योग्य व्यक्तियों के चयन और प्रशिक्षण के उपरान्त उन की नियुक्ति में लगने वाले समय में कितने पद और रिक्त हो जाएंगे इस का पहले से आकलन किया जाना चाहिए। इस आकलन के अनुरूप ही व्यक्तियों का चयन किया जाना चाहिए। जिस से कम से कम राज्य का कोई भी न्यायालय न्यायाधीश के अभाव में रिक्त न रहे। एक बार राज्य में यह स्थिति ले आई जाए तो राज्य में मुकदमों के निपटारे की गति को तीव्र किया जा सकता है।
अनेक न्यायालयों में न्यायाधीश का पद रिक्त हो जाने का असर यह होता है कि शेष न्यायालयों पर उन न्यायालयों के मुकदमों की सुनवाई का भार आ पड़ता है। इस तरह एक न्यायाधीश को एक से अधिक न्यायालयों का कार्य देखना होता है। पहले ही राजस्थान के अनेक न्यायालयों की स्थिति ऐसी है कि उन में चार से पाँच हजार मुकदमे लंबित हैं। पक्षकारों और वकीलों का न्यायालयों पर जल्दी जल्दी पेशियाँ देने का दबाव रहता है। जिस के कारण न्यायालयों की दैनिक कार्यसूची में तीन चार गुना मुकदमें लगते हैं। न्यायाधीशों का बहुत सारा समय केवल पेशियाँ बदलने के काम में जाया होता है। वे वास्तविक न्यायिक कार्य पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते। उन पर कोटे के अनुसार मुकदमों के निपटारे का दबाव भी होता है। इस तरह अधीनस्थ न्यायालयों का प्रत्येक न्यायाधीश अत्यन्त दबाव में काम करता है। जिस से निर्णयों की गुणवत्ता समाप्त होती जा रही है। यह वैसी ही स्थिति है जैसी हम निर्माण के कार्य में लगे मजदूरों की देखते हैं। वहाँ ठेकेदार का मुंशी लगातार मजदूरों की छाती पर खड़ा रहता है और जल्दी जल्दी काम निपटाने के लिेए लगातार दबाव बनाए रखता है। इधर न्यायाधीशों के कार्य का आकलन उन के द्वारा निपटाए गए मुकदमों की संख्या के आधार पर होने लगा है। गुणवत्ता के आधार पर नहीं। न्यायाधीश अपने द्वारा निर्णीत मुकदमों की संख्या बढ़ाते हैं लेकिन गुणवत्ता की ओर ध्यान नहीं देते। संख्या मुख्य हो गई है और गुणवत्ता गौण। ऐसे में किसी भी प्रकार यह आशा नहीं की जा सकती कि अधीनस्थ न्यायालयों में काम कर रहे न्यायाधीशों में से उच्च न्यायालय में नियुक्ति के योग्य व्यक्ति मिल सकेंगे। जिला और अपर जिला न्यायाधीश के पदों पर नियुक्त अनेक न्यायाधीश ऐसे हैं जो उन पदों के भी योग्य नहीं हैं।
आज जब न्यायपालिका के तुरंत विस्तार की आवश्यकता है। भारत में विकसित देशों की तुलना में आबादी के लिए केवल दस प्रतिशत न्यायाधीश नियुक्त हैं। हमें इस अनुपात को तुरंत सुधारना होगा। इस स्थिति को देश कब तक ढोता रहेगा कि कानून तो हैं लेकिन उन की पालना कराने के लिए न्यायालय नहीं हैं। मुकदमों का अंतिम निपटारा या तो होता ही नहीं है और होता है तो उस में 20-30-50 वर्ष तक लग रहे हैं। इस से हमारी न्याय व्यवस्था तेजी के साथ जन विश्वास खोती जा रही है। यही स्थिति बनी रही तो यह एक दिन जन विद्रोह का एक बड़ा कारण भी बन सकती है। इस स्थिति से न्यायपालिका में काम कर रहे न्यायाधीश चिंतित हैं। वकील चिंतित हैं। लेकिन यदि सब से कम चिंतित हैं तो हमारी राज्य सरकारें हैं। उन के माथे पर इस विषय पर कोई चिंता की लकीर तक दिखाई नहीं देती। सरकारों के प्रधान अगले चुनाव में वोट की व्यवस्था बनाने की ही चिंता करते दिखाई देते हैं। यह सब से बुरी स्थिति है। निकट भविष्य में इस स्थिति से निजात मिलती दिखाई नहीं देती और देश के न्यायिक परिदृश्य में निकट भविष्य में सुधार की कोई संभावना भी नजर नहीं आती।
देश के संवैधानिक न्यायालय सरकार से न्यायाधीशों का वेतन आदि बढ़ाने के लिए आदेश दे चुके हैं किन्तु न्यायालयों की संख्या बढ़ाने का आदेश देने में संकोच कर रहे हैं इससे आम जनता को यह सन्देश मिल रहा है कि न्यायलय और सरकार दोनों की मानसिकता में मुश्किल से ही कोई अंतर है | मात्र नाक बचाने के लिए कुछ दिखावटी कार्य अवश्य किये जाते हैं|
वकील साहिब, नमस्कार. आपका यह वैचारिक आलेख न्यायिक व्यवस्था की कमजोर और दयनीय होती स्थिति को अभिव्यक्त कर रहा है, जो देश के सभी जागरूक कहे जाने वाले नागरिकों के लिए तथा देश के कानून विद् / कानून विशेषज्ञों के लिए विचार करने लायक है. सरकारों के लिए तो आपका यह कथन सभी को दिखाई दे रहा है कि – ‘ सरकारों के प्रधान अगले चुनाव में वोट की व्यवस्था बनाने की ही चिंता करते दिखाई देते हैं। उन के माथे पर इस विषय पर कोई चिंता की लकीर तक दिखाई नहीं देती।’ ऐसे में, देश की दमित व शोषित बनी हुई आम जनता की तो हिम्मत ही नहीं है कि- वह इस दूषित होकर भी आतंकी समान बनी इस व्यवस्था के खिलाफ अपनी आवाज़ को बुलंद कर सके या विद्रोह कर सके. क्योंकि, आज उसके पास ना तो गाँधी, अम्बेडकर व जय प्रकाश नारायण जैसा ही नेतत्व है और ना ही विवेकानंद, सुभाष बोस, भगत सिंह जैसा ही विचारक है. इस सही नेतत्व की कमी के कारण से ही ये पीड़ित जनता ‘भ्रमित’ स्थिति में बनी हुई है और इसी भ्रम के कारण से वह हर दिखाई देने वाले नेतत्व के पीछे ‘दीवानगी’ के समान भटक रही है.
वकील साहिब, इस स्थिति से संभवत: आप भी भली भांति परिचित होंगे. इसलिए आपसे यही अनुरोध है कि – इन हालातों में अब आप जैसे कानूनविद्, विचारवान, जानकार व्यक्ति ही इस समस्या के निराकरण में सही सहयोगी बन सकते है.
इसी सन्दर्भ में आपका यह कथन भी बहुत हद तक सही है कि – ‘ अत्यन्त दबाव में काम करने के कारण से अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीशों के निर्णयों में गुणवत्ता समाप्त होती जा रही है। यह वैसी ही स्थिति है जैसी हम निर्माण के कार्य में लगे मजदूरों की देखते हैं। वहाँ ठेकेदार का मुंशी लगातार मजदूरों की छाती पर खड़ा रहता है और जल्दी जल्दी काम निपटाने के लिए लगातार दबाव बनाए रखता है। क्योंकि, अब न्यायाधीशों के कार्य का आकलन उन के द्वारा निपटाए गए मुकदमों की संख्या के आधार पर होने लगा है, गुणवत्ता के आधार पर नहीं।’ शायद, इसलिए न्यायाधीश भी अपने द्वारा निर्णीत मुकदमों की संख्या ही बढ़ाते रहते हैं और गुणवत्ता की ओर ध्यान नहीं दे पाते है। यानि, अब फैसलों की संख्या ही मुख्य हो गई है और गुणवत्ता गौण।
अत: वकील साहिब, जब व्यवस्था के संचालकों द्वारा अपने-अपने निज-हित में ‘लोकतंत्र ‘ की ही दुर्गति की जा रही हों, तो उसकी सुरक्षा के लिए किसी को तो कही से शुरुआत करनी ही होगी. ‘तीसरा खम्भा’ के लिए धन्यवाद. – जीनगर दुर्गा शंकर गहलोत, कोटा – ६ (राज.)
गहलोत जी,
किसी एक प्रभामंडल वाले नेता के भरोसे जब तक देश की गाड़ी रहेगी यह सब चलता रहेगा। श्रमजीवी जनता के विभिन्न हिस्सों को संगठित होना पड़ेगा। अपने हितों के लिए संघर्ष के मार्ग पर उतरना पड़ेगा। संघर्ष ही नए विश्वसनीय नेताओं का निर्माण करेगा।
न्यायिक परिदृश्य की इस भयावक स्थिति को देख कर बहुत ही खेद हो रहा है. वास्तव में आज मुक़दमों के निपटारे में लगने वाले समय की अनिश्चितता की वजह से वादकारियों का न्यायिक व्यवस्था से विश्वास उठता जा रहा है. इस विकट परिस्थिति से यदि स्वयं न्यायपालिका ही निजात नहीं दिलायगी तो संविधान के इस तीसरे खम्भे को बचा पाना मुश्किल हो जायेगा . न्यायालयों में बढ़ते मुकदमों की संख्या और न्यायाधीशों की घटती संख्या इसकी मुख्य वजह है.
हालत जितनी मैं ने बयान की है उस से अधिक खराब है।