निर्णय और डिक्री क्या हैं?
| बांदा उत्तर प्रदेश से धनराज वर्मा ने पूछा है-
मैं यह जानना चाहता हूँ कि निर्णय और डिक्री में क्या फर्क है? मुझे निर्णय की जो प्रतिलिपि मिली है उस में न्यायाधीश ने मामले के बारे में सबूतों और बयानों सहित विस्तार से विवेचना की है, यह निर्णय है अथवा डिक्री है?
उत्तर –
वे सभी मामले जो संपत्ति के संबंध में हों या किसी पद आदि के संबंध में हों दीवानी प्रकृति के मामले हैं। दीवानी न्यायालय इन मामलों की सुनवाई करते हैं। ये सभी मामले किसी न किसी प्रकार के अधिकार से संबंधित होते हैं। वादी या अनेक वादियों द्वारा प्रस्तुत वाद-पत्र इन मामलों का आरंभ होता है। तब प्रतिवादी या प्रतिवादियों को उस की सूचना भेजी जाती है। वह वाद पत्र का उत्तर प्रस्तुत करता है जिसे जवाब दावा या लिखित कथन कहा जाता है। वादपत्र तथा लिखित कथन में किए गए कथनों के आधार पर दोनों पक्षों के बीच न्यायालय विवादित बिन्दु (विवाद्यक या तनकीयात) तय करता है और यह बताता है कि किस पक्षकार को किस बिंदु को साक्ष्य के द्वारा साबित करना है। साक्ष्य के दौरान दस्तावेजी और मौखिक साक्ष्य ली जाती है। अंत में दोनों पक्षों के तर्क (बहस) सुन कर न्यायालय मुकदमे में निर्णय देता है। निर्णय में न्यायालय दोनों पक्षों के अभिकथनों और विवाद्यकों का उल्लेख करते हुए बताता है कि किस विवाद्यक को साबित करने का भार किस पर था। इन उल्लेखों के साथ वह साक्ष्य और विधि की विवेचना करते हुए अपना निर्णय देता है। इस तरह निर्णय पूरे मुकदमे का आवश्यक विवरण होता है। निर्णय के अंत में वह तय करता है कि वादी को राहत मिलनी चाहिए तो क्या मिलनी चाहिए या नहीं मिलनी चाहिए। निर्णय के अंत में वह इस बात का उल्लेख भी करता है कि इस निर्णय के आधार पर डिक्री तैयार की जाए।
इस तरह निर्णय अनेक पृष्ठों का हो सकता है। लेकिन उस विस्तृत निर्णय के द्वारा अंत में जो अधिकार निश्चित किए जाते हैं उन का विवरण अधिक से अधिक एक पृष्ठ से लेकर कुछ पृष्ठों का ही होता है। जिस में न्यायालय द्वारा तय किए गए अधिकारों तथा राहत का वर्णन होता है। दीवानी प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (2) में डिक्री को परिभाषित किया गया है। इस के अनुसार डिक्री किसी भी न्यायनिर्णयन की औपचारिक अभिव्यक्ति है जिस में न्यायालय किसी वाद के विवादग्रस्त किसी एक या सभी मामलों में निश्चय पूर्वक पक्षकारों के अधिकार तय करता है। डिक्री प्रारंभिक भी हो सकती है और अंतिम भी। डिक्री को प्रारंभिक तब कहा जा सकता है जब वाद में विवादग्रस्त मामलों में से कुछ को अंतिम रूप से तय कर दिया गया हो और कुछ मामलों का तय किया जाना शेष हो। सभी मामले तय कर दिए जाने पर डिक्री अंतिम कहलाती है। सामान्यतः डिक्री एक प्रारूप में प्रदान की जाती है जो निम्न प्रकार का होता है –
आप के पास जो प्रमाणित प्रतिलिपि है वह केवल निर्णय की प्रतिलिपि है डिक्री की नहीं। दीवानी मामलों में निर्णय की अपील नहीं होती। उस निर्णय के आधार पर पारित की गई डिक्री की अपील होती है। इस कारण से यदि किसी पक्षकार को किसी मामले में अपील प्रस्तुत करनी हो तो अपील के साथ निर्णय और डिक्री दोनों की प्रमाणित प्रतिलिपि प्रस्तुत करना अनिवार्य है। यदि किसी पक्षकार ने अपील के साथ केवल निर्णय की प्रतिलिपि ही प्रस्तुत की है और डिक्री की प्रति प्रस्तुत नहीं की है और अपील प्रस्तुत करने की अवधि समाप्त हो चुकी है तो ऐसी स्थिति में अपील डिक्री की प्रतिलिपि प्रस्तुत नहीं करने के कारण खारिज हो सकती है। इस कारण से किसी मामले में निर्णय हो जाने पर निर्णय और डिक्री दोनों की प्रमाणित प्रतियाँ एक साथ प्राप्त करनी चाहिए और अपील के साथ प्रस्तुत करनी चाहिए।
More from my site
One Comment
गुरुवर जी, आपके ब्लॉग "तीसरा खम्बा" के ब्लॉग जगत पर चार वर्ष पूर्ण करके पांचवे वर्ष में प्रवेश करने के लिए शुभकामनाएं प्रेषित करता हूँ. इस नए वर्ष में किसी पीड़ित व्यक्ति या प्रश्नकर्त्ता को उसके प्रश्न का उत्तर देने के लिए आपको कभी याद नहीं करवाना पड़ें. अपने बनाये नियमों (15 दिनों में उत्तर दे दिया जाएगा अथवा याद करवाए) का सही से पालन करने के लिए आपको भगवान अधिक समय दें. भगवान आपकी समय के अभाव की शिकायत को दूर करें. जिससे किसी पीड़ित व्यक्ति या प्रश्नकर्त्ता की उम्मीदें ना टूटे. आपकी आज से चार साल पहले आज ही के दिन पहली बार लोगों ने आपकी पहली पोस्ट को देखा था. आप अपने ब्लॉग के उद्देश्यों में कामयाब हो और आपके ब्लॉग को पहले से भी उच्च रेंकिग(जो पहले 82 थी, अब 73 है) प्राप्त हो. इसके अलावा बिना किसी प्रकार का आपके मन में द्वेष भावना आये ही लोगों की पीड़ा को उत्तर देकर कम करते रहें. इन्ही कामनाओं के साथ ………….
नोट: आप इस टिप्पणी को भी मेरा प्रचार, विज्ञापन बताकर या अन्य कोई कारण बताकर "स्पैम" कर सकते हैं, क्योंकि आपके ब्लॉग पर आपका अधिकार है.