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पर्याप्त संख्या में अदालतें स्थापित करने को धन की आवश्यकता है, इस बात को सरकार औऱ संसद के सामने रखने से कानून मंत्रालय को कौन रोक रहा है।

दालतों की कमी अब सर चढ़ कर बोलने लगी है और कानून मंत्रालय सीधे-सीधे नहीं तो गर्दन के पीछे से हाथ निकाल कर कान पकड़ने की कोशिश कर रहा है। कानून मंत्रालय ने सुझाव दिया है कि कोई भी नया कानून बनाने से पहले संसद को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इससे अदालतों पर कितना अतिरिक्त भार पडेगा और इस मकसद के लिए आवश्यक धन के लिए प्रावधान सुनिश्चित किया जाना चाहिए। हालाँकि इस सुझाव से लगता है कि जैसे संसद ही अभी तक पर्याप्त मात्रा में अदालतों की स्थापना को रोके हुए थी। कानून मंत्री एम वीरप्पा मोइली ने वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी को लिखे एक पत्र में कहा है कि किसी भी नए विधेयक या कानून से अदालतों पर पडने वाले अतिरिक्त भार तथा इस उद्देश्य के लिए जरूरी खर्च का आकलन किया जाना चाहिए।  
र्तमान में स्थिति यह है कि देशभर में निचली और उच्च अदालतों में लगभग तीन करोड मामले लंबित हैं और इनकी संख्या धीरे धीरे बढ रही है। वर्ष 2009 के आंकडों पर आधारित सरकार के आकलन के अनुसार भारत में औसतन किसी मुकदमे के अंतिम फ़ैसले में 15 साल का वक्त लगता है। ज्यूडिशल इंपैक्ट असेसमेंट टास्क फ़ोर्स की सिफ़ारिशों पर आधारित मोइली के पत्र में कहा गया है कि सरकार न्यायिक प्रभाव आकलन के जरिए अदालतों द्वारा किसी कानून के कार्यान्वयन में संभावित खर्च का पूर्वानुमान लगा सकती है। टास्क फ़ोर्स ने पूर्व कानून सचिव टीके विश्वनाथन के अनुसंधान कार्य पर आधारित अपनी सिफ़ारिशों में कहा था कि संसद या राज्य विधानसभाओं में पारित होने वाले प्रत्येक विधेयक से अदालतों पर पडने वाले भार का अनुमान मुहैया कराया जाना आवश्यक कर दिया जाना चाहिए। 
कानून मंत्रालय वित्त मंत्रालय को यह बताना तो चाहता है कि नयी अदालतें खोलने के लिए धन की आवश्यकता है। एक बात यह समझ में नहीं आ रही है कि वह यह बात खुल कर सरकारों के सामने क्यों नहीं रखना चाहता। इस बात को खुल कर सरकार और संसद के सामने रखने से कानून मंत्रालय को कौन रोक रहा है।
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