पुलिस को अन्वेषण के लिए आदेश देने की पुलिस की शक्तियाँ
| रमेशकुमार जैन ने जानना चाहा है –
प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करने के सन्दर्भ में धारा 156 (3) की परिभाषा क्या हैं, इसमें प्रक्रिया (पहले ब्यान, फिर पुलिस रिपोर्ट आदि ) कैसे चलती हैं और क्या इसके लिए कानून में समयसीमा निर्धारित है या उपरोक्त आवेदन पर ही फैसला लेने में पीड़ित व्यक्ति टूट चुका होता है। इसी सन्दर्भ में कुछ पुलिस अधिकारियों द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करने के बारे में क्या कुछ धारा और भी हैं? हैं तो कौन-कौन सी हैं।
उत्तर –
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 पुलिस अधिकारियों द्वारा संज्ञेय मामलों में अन्वेषण करने के अधिकार से संबंधघित है। सभी अपराधों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है, संज्ञेय अपराध और असंज्ञेय अपराध। इन के बारे में जानने के लिए आप तीसरा खंबा की पोस्ट संज्ञेय और असंज्ञेय अपराधों व मामलों की पुलिस को सूचना पढ़ें। इस संबंध में आगे की जानकारी के लिए आप को इस से अगली पोस्ट प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के उपरांत पुलिस के कर्तव्य भी पढ़नी चाहिए। इन दोनों को पढ़ने से आप को बहुत स्थिति स्पष्ट हो जाएगी।
धारा 156 की उपधारा (1) में पुलिस अधिकारी बिना किसी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना किसी भी संज्ञेय मामले में अन्वेषण आरंभ कर सकता है, जब कि असंज्ञेय मामलों में नहीं। उपधारा (2) में यह कहा गया है कि यदि पुलिस अधिकारी किसी मामले को संज्ञेय मानते हुए अन्वेषण आरंभ करता है तो उस अन्वेषण को इस आधार पर कहीं भी चुनौती नहीं दी जा सकती कि मामला ऐसा था जिस में पुलिस अधिकारी इस धारा के अंतर्गत सशक्त न था। इस तरह यदि पुलिस अधिकारी किसी असंज्ञेय मामले को भी संज्ञेय मान कर अन्वेषण आरंभ करता है और इस दौरान अपनी बदनीयती से किसी व्यक्ति को परेशान करता है तो भी उस के इस काम को चुनौती देना संभव नहीं है। सारे पुलिस अधिकारी इस उपधारा (2) का भरपूर दुरुपयोग करते हुए लाभ उठाते हैं। इस में संशोधन वांछित है। उपधारा (3) में कहा गया है कि कोई भी सशक्त मजिस्ट्रेट किसी पुलिस अधिकारी को अन्वेषण करने का आदेश दे सकता है।
धारा 156 (3) में किसी मामले का अन्वेषण करने का आदेश मजिस्ट्रेट स्वतः प्रेरणा पर भी दे सकता है और किसी की शिकायत पर भी। धारा 190 में यह उपबंधित किया गया है कि मजिस्ट्रेट किसी व्यक्ति के परिवाद पर या स्वयं की जानकारी के आधार पर किसी अपराध का प्रसंज्ञान ले सकता है। किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष किसी अपराध की सूचना परिवाद के माध्यम से प्रस्तुत करने पर मजिस्ट्रेट धारा 200 के अंतर्गत परिवादी और उस के साक्षियों के बयान ले सकता है। लेकिन यदि परिवाद लिखित में प्रस्तुत किया गया हो तो ऐसा बयान लेना मजिस्ट्रेट के लिए आवश्यक नहीं है। धारा 202 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट परिवाद पर यह जानने के लिए कि उस पर कार्यवाही करने के लिए कोई आधार है या नहीं खुद जाँच कर सकता है अथवा किसी पुलिस अधिकारी या किसी अन्य व्यक्ति को जिसे वह उचित समझे अन्वेषण करने का आदेश दे सकता है।
आम तौर पर यदि कोई मजिस्ट्रेट किसी मामले को अन्वेषण के लिए पुलिस अधिकारी को प्रेषित करता है तो पुलिस उस मामले में अपराध की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर अन्वेषण करती है। लेकिन यदि पुलिस अधिकारी आरंभिक अन्वेषण के बाद पाए कि कोई अपराध घटित नहीं हुआ है तो वह प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के स्थान पर मजिस्ट्रेट को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर सकता है।
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4 Comments
अगर १५६ ( ३) के तहत दर्ज मुकदमे को पुलिस कैंसिल क्र देती है और कैन्सेलेशन रिपोर्ट स्टेटस रिपोर्ट पर दी गयी हो . ऐसे में मजिस्ट्रेट मुक़दमे को कांजेइन तब तक के लिए कर दे की जब तक कम्पलीट कैंसलेशन रिपोर्ट नही आ जाती तब तक कोई कार्यवाही नही की जायगी .
सवाल नो. १ ऐसे में प्रोटेस्ट पेटिशन कब डाली जा सकती है ?
सवाल नो. २ क्या ऐसे में सेक्शन . ४६८ ऑफ़ सी आर पि सी
लागु होगी या नही ?
बैल एप्लीकेशन पर पुलिस रिप्लाई क्या है ? इनफार्मेशन, डॉक्यूमेंट , एविडेंस या दावा
अगर कोई पुलिस कर्मचारी किसी केस में जुठे सेक्शन बैल रिप्लाई पर देता है जो उसी केस में चार्जशीट में नही हो तो उस पुलिस कर्मचारी पर क्या कार्यवाही हो सकती है
Nice post.
लखनऊ से अनवर जमाल .
लखनऊ में आज सम्मानित किए गए सलीम ख़ान और अनवर जमाल Best Blogger
बहुत अच्छी जानकारी रमेश जी के संग संग हम सब को भी मिल रही हे,
आपके कथन अनुसार : यदि पुलिस ऐसी रिपोर्ट लिखने से इन्कार करती है तो व्यथित व्यक्ति ऐसी सूचना का सार लिखित में और डाक द्वारा संबद्ध पुलिस अधीक्षक को भेज सकता है। किसी अपराध के संज्ञेय होने और असंज्ञेय होने से दोनों के चरित्र में क्या अंतर आता है? लेकिन यदि परिवाद लिखित में प्रस्तुत किया गया हो तो ऐसा बयान लेना मजिस्ट्रेट के लिए आवश्यक नहीं है धारा 157 के अंतर्गत उसकी रिपोर्ट तत्काल उस मजिस्ट्रेट को प्रेषित करेगा जो उस मामले का संज्ञान करने के लिए सक्षम है। लेकिन ऐसी स्थिति में अपराध की सूचना देने वाले व्यक्ति को सूचित किया जाएगा कि मामला अन्वेषण योग्य नहीं है.
गुरुवर जी, उपरोक्त जानकारी प्रदान करके मुझे अपने केस से संबंधित केसों में बहुत मदद मिलेगी और साथ में भेजे दोनों पोस्टों(लिंक) को पढ़कर काफी कुछ स्थिति स्पष्ट हो गई. उपरोक्त जिज्ञासाओं का विस्तार से उत्तर न देना संभव हो तो केवल प्रश्न के बाद "हाँ" और "न" में उत्तर जल्दी से दें मुझे बहुत आवश्कता है.
पुलिस द्वारा ऐसी रिपोर्ट लिखने से इन्कार करने पर और व्यथित व्यक्ति ऐसी सूचना का सार लिखित में और डाक द्वारा संबद्ध पुलिस अधीक्षक को भेजने के बाद और अपराध की सूचना देने वाले व्यक्ति को सूचित किया जाएगा कि मामला अन्वेषण योग्य नहीं है की ऐसी सूचना नहीं दिए जाने के बाद क्या उपरोक्त मामला को धारा 156(3) के डालना उचित होगा ? क्या व्यथित व्यक्ति को मामले से संबंधित धारों की जानकारी होना जरुरी होती है या संबंधित मजिस्ट्रेट मामले को देखते हुए अपने विवेक पर धारों को निर्धारित करता है या फिर भी पुलिस की बात (धारा) चलती हैं. वैसे किसी पीड़ित व्यक्ति को जान से मारने, हाथ-पैर तोड़ देने, प्रकाशन ऑफिस में आग लगाने, उसकी माँ को लेकर अपमानजनक शब्द कहना और अनेक तरीकों से मानसिक रूप से परेशान करने पर कौन-कौन सी धारा बनती हैं. क्या इन आरोपों से संबंधित आरोपित व्यक्ति की "आवाज" रिकोर्ट भी हो तो तब उसको संबंधित मजिस्ट्रेट को सी.डी के रूप में दिया जा सकता हैं या पहले(सी.डी और लिखित ब्यान) पुलिस को दी जा चुकी हैं, उसी को मांगवा लेंगा ?