मद्रास में दांडिक न्याय प्रशासन : भारत में विधि का इतिहास-65
|सदर निजामत अदालत
मद्रास प्रेसीडेंसी में भी कलकत्ता के सदर निजामत अदालत की तर्ज पर सदर निजामत अदालत के नाम से 1802 के आठवें विनियम के अंतर्गत मुख्य दंड न्यायालय स्थापित किया गया। इस की अध्यक्षता सपरिषद गवर्नर को सौंपी गई। गवर्नर और परिषद के सदस्यों को अपराधिक मामलों का प्रसंज्ञान करने का अधिकार दिया गया। वे न्यायाधीशों के रूप में अपराधिक मामलों का विचारण कर के दण्ड अधिरोपित कर सकते थे। उन्हें मृत्युदंड देने का भी अधिकार प्रदान किया गया था।
सर्किट न्यायालय
कलकत्ता के प्रान्तीय न्यायालयों की तरह ही मद्रास में भी सर्किट न्यायालयों की स्थापना की गई थी। ये न्यायालय चल न्यायालय के रूप में काम करते थे और वर्ष में दो बार जिलों का दौरा कर के अपराधिक मामलों का निपटारा करते थे। इन न्यायालयों को सामान्य प्रकृति के अपराधों के लिए दंड देने करने की शक्ति प्रदान की गई थी। जघन्य अपराधों के लिए दंड देने के लिए मुख्य दंड न्यायालय का अनुमोदन आवश्यक था।
मजिस्ट्रेट और सहायक मजिस्ट्रेटों के न्यायालय
1802 के छठे विनियम के अंतर्गत मजिस्ट्रेट और सहायक मजिस्ट्रेट नियुक्त करने का उपबंध किया गया था। उन का काम अभियुक्त को बंदी बनाना, अपराध की आरंभिक जाँच करना, अभियुक्तों को विचारण के लिए उपयुक्त न्यायालयों के सुपुर्द करना आदि थे। मजिस्ट्रेट और सहायक मजिस्ट्रेट चोरी, हमला कर चोट पहुँचाना आदि सामान्य अपराधों के लिए 15 दिन तक के कारावास और 200 रुपए तक का दंड प्रदान कर सकते थे।
1802 की योजना के अंतर्गत न्यायालयों में मुस्लिम दंड विधि का उपयोग होता था। सिविल मामलों में हिन्दू व मुस्लिम पक्षकारों के लिए उन की व्यक्तिगत विधियों का प्रयोग किया जाता था। यदि पक्षकार विभिन्न धर्मावलंबी हों तो प्रतिवादी की व्यक्तिगत विधि का प्रयोग होता था। इस के साथ ही साम्य, विवेक और शुद्ध अंतःकरण के सिद्धांतों का उपयोग किया जाता था।
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7 Comments
gyaanvardhak lekh ke liye aabhar sir..
अच्छी जानकारी.
अच्छी जानकारी.
अच्छी जानकारी.
…प्रभावशाली प्रस्तुति !
nice
आभार जानकारी का.