वैदिक काल में विधि के स्रोत : भारत में विधि का इतिहास-3
|वैदिक युग में ऐसी कोई संवैधानिक संस्था का उल्लेख नहीं मिलता जो विधि का निर्माण करती हो. विधि का स्रोत तब तक रची जा चुकी वेद ऋचाएँ ही थीं। परवर्ती काल में ब्राह्मणादि वेदोत्तर ग्रंथ उस का आधार बने। उस समय विधि के दो रूप सामने आते हैं। एक तो धार्मिक नियम जिन्हें ईश्वरकृत माना गया था और दूसरे सदाचार के नैतिक नियम। समुदायों द्वारा स्वयं अपने लिए इन विधि नियमों की रचना की जाती थी जो राजधर्म के अनुसार पूरी तरह से मान्य होते थे। राजा के लिए शास्त्रों और प्रचलित प्रथाओं के अनुरूप आचरण करना आवश्यक होता था। वैदिक युग की समस्त विधि धर्मग्रंथों पर आधारित थी। राजा अथवा अन्य किसी संस्था को उन विधियों में परिवर्तन का अधिकार नहीं था। इन विधियों को सनातन और शाश्वत धर्म माना जाता था।
वेदों में ‘ऋत’ और ‘सत्य’ की अवधारणा विधि और न्याय का मूल था, जिस ने कालांतर में धर्म और व्यवहार (विधि और न्याय) का रूप धारण कर लिया था। ऋत प्रकृति के नियम थे। जो जगत की नियमितता, अवस्था और क्रमबद्धता के लिए अनिवार्य माने जाते थे। वैदिक साहित्य में ऋत को बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त था। वह वैदिक युग की सर्वमान्य आचार संहिता बन गई थी।
न्याय प्रशासन
वैदिक युग में राजा न्याय का सर्वोच्च अधिकारी होता था। वह प्रचलित परंपराओं, प्रथाओं, समुदाय के नियमों और राजधर्म के अनुसार न्याय करता था। ऋग्वेद में ‘मध्यमसि’ नाम से पंच निर्णय प्रणाली का भी उल्लेख मिलता है। जिस से पक्षकारों द्वारा मान्य पंचों से विवादों का निर्णय कराने और उसे मानने की पंरपरा का पता लगता है। ग्रामों में आपसी विवादों का निपटारा ‘ग्रामवादिन’ करते थे। ऋग्वेद में द्यूतक्रीड़ा, निन्दा, व्यभिचा, पथबाधा, उत्पीड़न व अन्य अपराधों (दुष्कृत्यों) का उल्लेख मिलता है तथा इन्द्र, अग्नि आदि देवताओं से दुष्टों (अपराधियों) के धन का हरण करने और उन के समाज से निष्कासन के लिए प्रार्थनाएँ मिलती हैं।
वैदिक युग में मृत्युदंड का उल्लेख मिलता है। लेकिन प्रताड़ना, आर्थिक दंड और शारीरिक दंड ही आम थे। मनुष्य को शतदाय कहा जाता था क्यों कि उस की हत्या के लिए सौ गायों का दंड निर्धारित था। जो कि तत्कालीन समाज में बहुत बड़ा अर्थदंड था। जल परीक्षा, अग्निपरीक्षा और संतप्तपरशु परीक्षा का भी अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है। ऋण अदा न करने पर ऋणी को ऋणदाता की दासता स्वीकार करनी होती थी। लेकिन इस काल में व्यक्तिगत बदले के न्याय जैसे ‘आँख के बदले आँख’ जैसे न्याय का उल्लेख नहीं मिलता । अपितु सामुदायिक या राजकीय न्याय के द्वारा बदले की भावना को नियंत्रित करने के प्रभावी उपकरण मौजूद होने के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। (जारी)
आगे पढ़िए – धर्मशास्त्र युगीन विधियाँ
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4 Comments
लगता है किसी इतिहास वेत्ता को पढ़ रहे हैं ….
सलाम डाक्टर द्विवेदी!
क्या बेहतरीन जानकारी लाये हैं आप!!
जारी रहिये.
बहुत सुंदर जानकारी दे रहे है आप धन्यवाद
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति, विधिक इतिहास से जनसामन्य से परिचय कराने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।