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सुप्रीमकोर्ट और कौंसिल के बीच क्षेत्राधिकार विवाद के मामले : भारत में विधि का इतिहास-35

रेगुलेटिंग एक्ट में छूट गई कमियों ने गवर्नर जनरल और उस की परिषद के बीच जो संघर्ष चला। उस में सुप्रीमकोर्ट ने भी अपनी भूमिका अदा की। यह राजा नन्दकुमार के मामले से स्पष्ट है। लेकिन कुछ और मामले हैं जो इस संघर्ष के साक्षी हैं। ऐसा ही एक मामला कमालुद्दीन का है जो राजा नन्दकुमार के मामले में अभियोजन पक्ष का साक्षी भी था। वह एक किसान था जो कांतबाबू की जमीन पर खेती करता था। 1775 में उस की ओर लगान बाकी था। लगान का भुगतान नहीं करने के लिए कलकत्ता की रेवेन्यू कौंसिल ने उस की गिरफ्तारी का गैरजमानती वारंट जारी कर दिया। कमालुद्दीन ने सुप्रीमकोर्ट में बंदीप्रत्यक्षीकरण याचिका (Writ of Habieas corpus) दायर की। सुप्रीमकोर्ट ने यह कहते हुए कि इस तरह के मामलों में मामले की जाँच होने तक सुप्रीमकोर्ट द्वारा जमानत स्वीकार करने की परंपरा है, जमानत का आवेदन स्वीकार कर लिया। सुप्रीमकोर्ट ने यह भी कहा कि उस ने अपने विवेकाधिकार का युक्तिसंगत प्रयोग किया है साथ ही यह टिप्पणी भी की कि राजस्व परिषद द्वारा प्रस्तुत विवरणी त्रुटिपूर्ण है। यह आदेश भी दिया कि उसे तब तक बंदी न बनाया जाए जब तक कि लगानाधीन से बकाया का भुगतान न मांग लिया जाए या उसे दिवालिया घोषित न कर दिया जाए। 
सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को गवर्नर जनरल की परिषद ने नहीं माना और कहा कि इस मामले में सुप्रीमकोर्ट का क्षेत्राधिकार नहीं था और उस ने अपनी अधिकारिता का अतिक्रमण किया है। परिषद का तर्क था कि 1773 के रेगुलेटिंग एक्ट के अधीन कम्पनी दीवान के अधिकार ग्रहण कर चुकी है और ऐसे सभी मामले परिषद के क्षेत्राधिकार में आते हैं। परिषद ने बहुमत से निर्णय लेते हुए सुप्रीमकोर्ट के आदेश की उपेक्षा करते हुए कमालुद्दीन को फिर से बंदी बनाने के लिए प्रान्तीय परिषद को आदेश देने का निश्चय किया। लेकिन हेस्टिंग्स ने इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया। परिषद ने नन्दकुमार के मामले में कमालुद्दीन की भूमिका की निन्दा भी की थी। गवर्नर जनरल द्वारा प्रस्ताव को अस्वीकृत कर देने से परिषद के बहुमत ने अपनी नाराजगी व्यक्त की। इसी तरह के भू-राजस्व के एक अन्य मामले में भी सुप्रीमकोर्ट ने सरूपचंद नाम के व्यक्ति को बंदी-प्रत्यक्षीकरण याचिका स्वीकार कर मुक्त कर दिया था। इस तरह परिषद और सुप्रीमकोर्ट के बीच मतभेद बढ़ते चले गए।इसी तरह कासीजुरा के राजा का मामला भी बहुत विवादास्पद रहा। जिस से ये मतभेद चरमोत्कर्ष पर पहुँच गए।
कासीजुरा के जमींदार राजा सुंदरनारायण पर काशीनाथ बाबू का भारी ऋण था। राजस्व परिषद में अपना धन वसूल करने में असफल रहने पर उन्हों ने काशीनाथ ने 13 अगस्त 1777 को सुंदरनारायण के विरुद्ध सुप्रीमकोर्ट में वाद दायर किया। सुंदरनारायण के जमींदार होने के कारण उस की हैसियत कंपनी के कर्मचारी की है और  मामला सुप्रीमकोर्ट के क्षेत्राधिकार का है। सुप्रीमकोर्ट ने रिट ऑफ केपिअस (Writ of Capias) जारी कर सुंदरनारायण को बंदी बनाने या तीन लाख रुपए की जमानत पेश करने का आदेश जारी कर दिया। रिट जारी होते ही सुंदरनारायण फरार हो गया। इस तरह वह अपने जमींदारी के काम करने से वंचित हो गया। मिदनापुर के कलेक्टर ने गवर्नर जनरल को सूचित किया कि राजा सुंदरनारायण गिरफ्तारी से बचने को छिपा हुआ है। जिस से लगान वसूली में व्यवधान आ रहा है। महाधिवक्ता से राय मांगे जाने पर उस ने राय दी की रेगुलेटिंग एक्ट के अंतर्गत जमींदारी का काम सुप्रीमकोर्ट के क्षेत्राधिकार में नहीं आता है।  इस राय के आधार पर राजा को  निर्देश दिया गया कि वह सु्प्रीमकोर्ट में उपस्थित नहीं हो और ऐसा कोई कार्य न करे जिस से सुप्रीमकोर्ट की अधिकारिता में आ जाए। परिषद ने अन्य जमींदारो

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