अदालतों की संख्या पर्याप्त करें, स्वतंत्र अन्वेषण ऐजेंसियाँ के गठन की ओर बढ़ें : जनता को नववर्ष का तोहफा दें, सरकारें
|धरती के भीतर उबल रहा लावा लगातार ऊपरी सख्त परत को धक्के मारता रहता है। जब भी उसे कमजोर जगह मिलती है तो उसे तोड़ कर वह ज्वालामुखी के रूप में फूट पड़ता है। सतह न टूटे तो भी वह उसे इतना कंपन देता है जिन्हें हम भूकंप के रूप में महसूस करते हैं। यही भूकंप जब समुद्र में हो तो वह उस की विशाल जलराशि में विशालकाय और विनाशक लहरों के रूप में प्रकट होता है। हम इन्हें सुनामी कहते हैं। सुनामियों ने अनेक द्वीप लील लिए हैं और कितने ही तटों को कितनी ही बार नष्ट किया है।
ऐसी ही एक सुनामी इन दिनों भारत के न्याय जगत में दिखाई पड़ रही है। अवयस्क बालिका रुचिका के मामले में 19 वर्ष तक चली सुनवाई के बाद नाम मात्र की सजा ने मीडिया को आकर्षित किया और मीडिया के हल्ले ने जो सुनामी देश के न्यायिक जगत में पैदा की है उस से सरकार भी अछूती नहीं रही है। ऐसा लग रहा है जैसे हमारी सम्माननीय न्यायिक के व्यवस्था के वस्त्र अचानक बीच बाजार में उतर गए हों और वह अपनी लज्जा को छुपाने में लगी है। अब फिर से प्राथमिकियाँ दर्ज की जा रही हैं। त्वरित और उच्च स्तरीय अन्वेषण की बात की जा रही है। विधि मंत्री संपूर्ण प्रकरण पर लज्जा महसूस कर रहे हैं। यौन उत्पीड़न के मामलों में कानून को संशोधित किया जा कर उस में निर्धारित सजा बढ़ाए जाने पर विचार हो रहा है। यहाँ तक विचार हो रहा है कि शीघ्र ही एक कानून बना कर यौन अपराधों के मामलों को त्वरित विचारण (फास्ट ट्रेक) न्यायालयों की स्थापना की जाकर उन्हें सोंप दिया जाए और उन के विचारण की अवधि निर्धारित कर दी जाए।
यह सब तब हो रहा है जब हमारी अपराधिक न्याय व्यवस्था चौराहे पर निर्वसन लज्जित खड़ी है। पर क्या जो कुछ कहा जा रहा है वह इस के लिए पर्याप्त है, जिस से भविष्य में उसे इस तरह लज्जित न होना पड़े? पिछले दो वर्षों से देश के मुख्य न्यायाधीश लगातार कह रहे हैं कि हमारे यहाँ न्यायालयों की संख्या आवश्यकता की मात्र चौथाई है। यही कारण है कि मुकदमों की सुनवाई में देरी होती है और न्याय केवल कागजी बन कर रह जाता है। अभी हाल ही में उन्हों ने देश में अधीनस्थ न्यायालयों की संख्या तुरंत बढ़ा कर कम से कम पैंतीस हजार करने की जरूरत बयान करते हुए कहा था कि ऐसा न हुआ देश बगावत की तरफ बढ़ सकता है। वर्तमान में देश में केवल मात्र 16000 अदालतें हैं उन में भी दो हजार से अधिक अदालतों में जज नहीं हैं। स्वयं संसद में सरकार द्वारा निर्धारित क्षमता के अनुसार प्रत्येक दस लाख जनसंख्या पर पचास अधीनस्थ न्यायालय होने चाहिए। भारत की वर्तमान आबादी लगभग एक अरब बीस करोड़ के लगभग है और अदालतों की संख्या 60 हजार होनी चाहिए। यही हमारी वास्तविक आवश्यकता है। अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना का काम राज्य सरकारों का है। लेकिन किसी भी राज्य सरकार में इस बात पर चिंता और हलचल तक नहीं दिखाई पड़ती है कि उन के यहाँ न्याय और न्यायालयों की क्या स्थिति है और वे घोषित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए क्या कदम उठाने जा रहे हैं।
कानून और व्यवस्था का जिम
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14 Comments
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न्यायालयों की संख्या तो बढनी ही चाहिये इसी बहाने कई बेरोजगार वकीलों को रोजगार उपलब्ध होंगे । पर ये सारा प्रकरण कहीं राजनीती से प्रेरित तो नही । सायाद चौटाला और हूडा जी की आपसी विरोध की एक प्रक्रिया मात्र । पर जो भी हो रुचिका के परिवार को न्याय मिले देर से ही सही ।
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं…
so nice dinesh ji, how r u? i hope u'll be fine
Sahi mudda…
नया साल…नया जोश…नई सोच…नई उमंग…नए सपने…आइये इसी सदभावना से नए साल का स्वागत करें !!! नव वर्ष-2010 की ढेरों मुबारकवाद !!!
नये साल की घणी रामराम.
रामराम.
नव वर्ष की बहुत शुभकामनायें …!!
भारत की कमजोर होती न्याय व्यवस्था पर बढिया आलेख लिखा है आपने .. आपके और आपके परिवार के लिए नववर्ष मंगलमय हो !!
बढ़िया विवेचन है आपका।
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
आप और आपके परिवार को नववर्ष की सादर बधाई
नव वर्ष की नई सुबह
शायद भगवान ही कोई चमतकार कर दे…
आप को ओर आप के परिवार को नववर्ष की बहुत बधाई एवं अनेक शुभकामनाए
आशा तो की ही जा सकती है.
वर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाने का संकल्प लें और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।
– यही हिंदी चिट्ठाजगत और हिन्दी की सच्ची सेवा है।-
नववर्ष की बहुत बधाई एवं अनेक शुभकामनाएँ!
समीर लाल
उड़न तश्तरी
वाकई कुछ ऐसी ही ज़रूरत आन पड़ी है सरकार ध्यान दे तो कुछ फ़ायदा हो जाए जनता को..बढ़िया प्रसंग..द्विवेदी जी नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!!