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भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम 1861 : भारत में विधि का इतिहास-77

ब्रिटिश संसद ने 1861 में भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम पारित किया और इसी के साथ भारत में उच्च न्यायालयों के इतिहास का आरंभ हुआ। इस अधिनियम द्वारा ब्रिटिश क्राउन को भारत में आवश्यकतानुसार उच्च न्यायालय स्थापित करने का प्राधिकार दिया गया था। प्रारंभ में कलकत्ता, मद्रास और बम्बई में उच्च न्यायालय स्थापित किए गए। भविष्य में भी लेटर्स पेटेंट द्वारा भारत में आवश्यकतानुसार उच्च न्यायालय स्थापित करने का अधिकार ब्रिटिश क्राउन को प्रदान किया गया था। इस अधिनियम में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए अर्हताएँ निर्धारित की गई थीं। जिस के अनुसार एक भारतीय को भी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकता था। यह दूसरी बात थी कि तब तक भारतियों में शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा रहा हो जो इन अर्हताओं की पूर्ति कर सके। 
धिनियम के अनुसार मुख्य न्यायाधीश सहित कुल 15 न्यायाधीश एक उच्च न्यायालय में नियुक्त किए जा सकते थे। इन में से एक तिहाई पाँच वर्ष का बैरिस्टरी का अनुभव रखने वालों के लिए, एक तिहाई पद ब्रिटिश सिविल सेवा के अनुबंधित कर्मचारियों के लिए जिन्हें तीन वर्ष तक जिला न्यायाधीश के रूप में काम करने का अनुभव रहा हो या मुख्य सदर अमीन अथवा लघुवाद न्यायालय के न्यायाधीश के  रूप में पाँच वर्ष कार्य किया हो और शेष एक तिहाई सुप्रीम कोर्ट अथवा सदर दीवानी अदालत में 10 वर्ष तक प्लीडर के रूप में काम करने वाले व्यक्तियों के लिए आरक्षित किए गए थे। ये न्यायाधीश ब्रिटिश सम्राट की इच्छा पर्यंत अपने पद पर बने रह सकते थे।उच्च न्यायालय में सुप्रीम कोर्ट की समस्त अधिकारिता अंतरित कर दी गई थी। अधिनियम में स्पष्ट किया गया था कि प्रेसीडेंसी नगरों के लिए समस्त सिविल, दांडिक, नौकाधिकरण विषयक, वसीयती, और विवाह आदि समस्त मामलों पर प्रारंभिक और अपीली अधिकारिता उच्च न्यायालयों को रहेगी। प्रेसीडेंसी नगरों के बाहर के क्षेत्रों के लिए सिविल और दांडिक अधिकारिता उच्च न्यायालय में निहीत की गई थी।
स अधिनियम से ब्रिटिश क्राउन को भारत में उच्च न्यायालय स्थापित करने का प्राधिकार तो मिल गया था लेकिन इस के द्वारा सीधे किसी उच्च न्यायालय की स्थापना नहीं की गई थी। इस अधिनियम  के द्वारा कलकत्ता, मद्रास और बम्बई के सुप्रीम कोर्टों को समाप्त कर उन के अभिलेख को उच्च न्यायालय के रिकार्ड के रूप में मान्यता प्रदान की गई थी। अधिनियम की धारा 9 से ब्रिटिश क्राउन को उच्च न्यायालयो की अधिकारिता में संशोधन का प्राधिकार दिया गया था। धारा 10 से सु्प्रीम कोर्टों और सदर अदालतों की अधिकारिता उच्च न्यायालयों को अंतरित करने का उपबंध किया गया था। पहले के सभी उन कानूनों को बाध्यकारी मान लिया गया था जो इस अधिनियम के विपरीत नहीं थे। धारा 15 से अधीनस्थ न्यायालयो का अधीक्षण करने और उन के लिए नियम बनाने की शक्तियाँ उच्च न्यायालयों को प्रदान की गई थीं। वे अधीनस्थ न्यायालय को विवरण प्रस्तुत करने का आदेश दे सकते थे, अपीलों को किसी भी न्यायालय को अंतरित कर सकते थे। सब से उल्लेखनीय बात यह थी कि उच्च न्यायालयों को प्रक्रिया संबंधी नियम बनाने की स्वायत्तता प्रदान की गई थी। 
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