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आधार, जिन पर विवाहित मुस्लिम महिलाएँ तलाक की डिक्री हासिल कर सकती हैं

मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम-1939 को अधिनियमित करने के दो कारण बताए गए थे। पहला तो यह कि विभिन्न  परिस्थितियों में परेशान हो रही महिलाओं को अपने पति से तलाक लेने का जो अधिकार मुस्लिम कानून में उपलब्ध थे और जिन में विवाद था उन्हें इस कानून द्वारा स्पष्ट किया जाए। दूसरा यह कि एक विवाहित मुस्लिम महिला के इस्लाम धर्म का त्याग कर देने पर उस के विवाह की स्थिति के कानून को स्पष्ट कर दिया जाए। यही दो प्रावधान इस कानून में रखे गए हैं। इस कानून की धारा-2 में वे आधार निर्धारित कर दिए गए हैं जिन पर एक मुस्लिम महिला न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त कर सकती है। 

मुस्लिम महिला के लिए तलाक के आधार
1. यदि पति का पिछले चार वर्षों से कोई अता-पता न हो। किन्तु इस आधार पर पारित की गई डिक्री, डिक्री की तारीख से छह माह तक प्रभाव में नहीं आएगी। लेकिन, यदि इस अवधि में पति स्वयं या अपने अधिकृत  अभिकर्ता के माध्यम से न्यायालय में उपस्थित होता है और न्यायालय को संतुष्ट कर देता है कि वह अपने वैवाहिक दायित्वों का निर्वाह करेगा तो न्यायालय ऐसी डिक्री को अपास्त कर देगी। अधिनियम की धारा-3 के द्वारा यह भी प्रावधान किया गया है कि इस आधार पर किए गए दावे में मुस्लिम कानून के आधार पर पति के होने वाले उत्तराधिकारियों को पक्षकार बनाया जाएगा, यदि उन में से किसी की मृत्यु हो चुकी हो तो यह बात दावे में अंकित की जाएगी।  ऐसे सभी पक्षकारों को अदालत दावे की सूचना भेजेगी और ये सभी व्यक्ति अपनी बात अदालत के सामने रखने के अधिकारी होंगे। पति के पिता के भाई और पति के भाई यदि वे पति के उत्तराधिकारी न भी हों तो भी उन्हें पक्षकार बनाया जाएगा।
2. यदि पति पिछले दो वर्षों से लगातार पत्नी की उपेक्षा कर रहा हो, या उस का भरण-पोषण करने में असमर्थ रहा हो।
3. यदि पति को सात वर्ष या उस से अधिक की क़ैद की सजा हो गई हो। लेकिन इस आधार पर जब तक क़ैद की सज़ा अंतिम न हो गई हो विवाह विच्छेद की कोई डिक्री पारित नहीं की जाएगी।
4. यदि तीन वर्षों से पति बिना किसी उचित कारण के उस के  वैवाहिक  दायित्वों का निर्वाह करने में असफल रहा हो।
5. यदि पति विवाह के समय नपुंसक हो और उस की नपुंसकता बरकरार हो।  लेकिन, पति दावे के दौरान प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करे कि वह अब नपुंसक नहीं रह गया है तो अदालत आदेश देगी कि पति एक वर्ष के भीतर अदालत को संतुष्ट करे कि वह अब नपुंसक नहीं रह गया है, और यदि अदालत संतुष्ट हो जाती है तो विवाह विच्छेद की डिक्री पारित नहीं करेगी।
6. यदि पति पिछले दो वर्षों से लगातार विक्षिप्त हो या कोढ़ या उग्र यौन (virulent venereal) बीमारी से ग्रस्त हो।
7. यदि पत्नी का विवाह उस के 15 वर्ष की होने के पूर्व उस के पिता या संरक्षक ने किया हो तो वह 18 वर्ष की होने के पूर्व अपने विवाह को अस्वीकार कर दिया हो। लेकिन यह आधार तभी प्राप्त होगा जब कि विवाह (consummated) कंजूमेटेड न हुआ ह
ो, अर्थात पति-पत्नी के बीच यौन संबंध स्थापित न हुआ हो।
8. यदि पति पत्नी के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार करता हो। इस के लिए निम्न कृत्यों को क्रूरता समझा जाएगा।
  1. आदतन पत्नी पर प्रहार करता हो या व्यवहार की क्रूरता के कारण पत्नी के जीवन को दुःखी कर दिया हो चाहे ऐसी क्रूरता शारीरिक दुर्व्यवहार की श्रेणी में न आती हो।
  2. पति किसी बुरे चरित्र की स्त्री के साथ संबद्ध हो गया हो या बदनामी का जीवन व्यतीत कर रहा हो।
  3. पति पत्नी को अनैतिक जीवन अपनाने के लिए बाध्य करने का प्रयत्न करता हो।
  4. पति पत्नी की संपत्ति को बेच दे या पत्नी को उस की संपत्ति पर उस के अधिकारों का उपयोग करने से रोकता हो।
  5. पति पत्नी को उस के धार्मिक रीतियों या रिवाजों को करने में बाधा डालता हो।
  6. यदि पति के एक से अधिक पत्नियाँ हों और वह सब के साथ क़ुरान की आज्ञाओं के अनुसार समान रूप से व्यवहार न करता हो। 
  7. और कोई भी अन्य आधार जो मुस्लिम कानून के अंतर्गत विवाह विच्छेद  के लिए मान्यता प्राप्त हो।

पत्नी द्वारा इस्लाम के त्याग अथवा किसी अन्य धर्म की विश्वासी हो जाने का प्रभाव

यदि कोई विवाहित महिला इस्लाम का त्याग कर दे या किसी अन्य धर्म को अपना लेगी तो ऐसा करने से उस का विवाह स्वतः ही समाप्त नहीं समझा जाएगा।

लेकिन, ऐसे इस्लाम त्याग अथवा धर्म परिवर्तन के उपरांत ऐसी महिला इस कानून की धारा-2 में वर्णित आधारों पर तलाक लेने की अधिकारी होगी।

लेकिन, इस धारा के प्रावधान उस महिला पर लागू न होंगे जिस ने किसी अन्य धर्म से परिवर्तित हो कर इस्लाम में विश्वास किया हो और इस्लाम त्याग कर पुनः अपना पूर्व धर्म अपना लिया हो।

इस कानून में यह भी प्रावधान किया गया है कि इस कानून के द्वारा मुस्लिम महिला को मुस्लिम कानून के अंतर्गत प्राप्त स्त्री-धन या उस के किसी भाग पर उस का अधिकार प्रभावित नहीं होगा।

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