आरक्षण : देश गृहयुद्ध की आग में जलने न लगे
|राजस्थान में जो कुछ हो रहा है बहुत शर्मनाक है, लेकिन अप्रत्याशित नहीं। गुर्जर सड़कों पर निकल आए हैं और उनकी मांग है कि उन की श्रेणी अन्य पिछड़ा वर्ग से परिवर्तित कर जनजाति दी जाए। उन का आंदोलन हिंसक हो उठा है, जन-जीवन अस्तव्यस्त है, अनेक जानें जा चुकी हैं और सार्वजनिक संपत्ति नष्ट हो रही है।
वर्तमान गुर्जर संघर्ष के दो कारण हैं, एक– जाति के आधार पर पहचान की राजनीति, और दूसरे– आरक्षण कोटा।
जब राजस्थान में शक्तिशाली और सम्पन्न जाटों को अन्य पिछड़ा वर्ग का दर्जा प्रदान किया गया तो गुर्जरों को भी उन के साथ इसी श्रेणी में स्थान दिया गया। भारतीय जनता पार्टी ने राजस्थान विधानसभा का पिछला चुनाव श्रीमती वसुन्धराराजे सिन्धिया के नेतृत्व में लड़ा। उस समय गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का वादा किया गया था। गुर्जरों ने एक मुश्त भाजपा को वोट दिए. जिस का नतीजा है कि भाजपा सत्ता में आज सत्ता में है और श्रीमती वसुन्धरा मुख्यमंत्री। अब गुर्जर उन से किया गया वायदा पूरा करवाना चाहते हैं।
गुर्जरों को उन की आबादी के हिसाब से राजस्थान की राजनीति में बहुत कम मह्त्व प्राप्त है। एक दौसा जिला है जहाँ उन की एकांगी राजनीतिक ताकत है, और वहाँ वे इस ताकत के चलते राजनीतिक प्रतिनिधित्व हासिल कर लेते हैं। अब दौसा की सीट को एसटी की आरक्षित सीट परिवर्तित किया जा रहा है। यह बात पता चलते ही उनके धैर्य का बांध टूट पड़ा है और वे सड़कों पर आ गए हैं और आक्रामक हो उठे हैं।
राजस्थान की मीणा जाति गुर्जरों को इस श्रेणीँ में सम्मिलित किए जाने की विरोधी है। वे केवल राजस्थान में ही अनुसूचित जनजाति समुदाय के रूप में वर्गीकृत हैं और उन्होंने कसम खाई है कि वे अपनी श्रेणी में गुर्जरों के दखल को बर्दाश्त नहीं करेंगे।
राजस्थान में जहाँ गुर्जरों की जनसंख्या 4% और मीणा जाति की 10% है। मीणा जाति के लोग संपन्न थे लेकिन अनुसूचित जाति की सूचि बनने पर उस में मेवाड़ इलाके की “भील मीणा” जाति को सम्मिलित किया गया था न कि मीणा जाति को। इस “भील मीणा” के बीच अधिसूचना में एक अल्पविराम भर लगा देने भर से मीणा आरक्षण का लाभ ले गए, जो जनसंख्या, धन-संपत्ति और अब ब्यूरोक्रेसी और राजनीति में एक मजबूत प्रेशर ग्रुप हैं।
अब यदि गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति के रूप में शामिल किया जाता है तो मीणा समुदाय को हासिल राजनीति और सरकारी नौकरियों के कोटे में मीणा जाति को हानि होगी। क्यों कि अब उन्हें ये लाभ गुर्जरों के साथ साझा करने होंगे और वे इस के लिए तैयार नहीं हैं। वे इसे बनाए रखने के लिए पुरजोर विरोध करेंगे जो उन की जनसंख्या, ब्यूरोक्रेसी और राजनीति में उन की मजबूत स्थिति के चलते गुर्जरों के रोष से कई गुना अधिक हो सकता है।
ऐसा लगता है कि देश में जाति-समूह की ताकत के आधार पर लाभ प्राप्त करना ही सामाजिक न्याय प्राप्त का एकमात्र तरीका बचा है। यह एक दुखद लेकिन गंभीर है, यहाँ तक कि एक खतरनाक स्थिति है। एक राज्य में दो लड़ाका जातियाँ हथियार लिए आमने सामने खड़ी हैं, और राजनीति उन के बीच अपराधी की भांति सिर झुकाए खड़ी है।
इन घटनाओं ने आरक्षण आधारित सामाजिक न्याय के पूरे कार्यक्रम और उस के औचित्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।
राजनीति में आज भले ही न सोचा जा रहा हो, लेकिन आरक्षण की इस व्यवस्था को किसी अन्य विकल्प से प्रतिस्थापित करने की स्थिति नहीं लायी गई, तो यह हो सकता है कि कुछ ही वर्षों मे देश गृहयुद्ध की आग में जल रहा हो।
आरक्षण के पक्ष में जितना भी तर्क दिया जाए परन्तु सच यह है कि आरक्षण हर हालत में लोगों को बाँटता ही है। इसकी आवश्यकता केवल इसलिए पड़ रही है क्योंकि सरकार स्वयं अपना काम करना नहीं जानती। यदि सरकारी स्कूलों में अच्छी शिक्षा सबको मिलती, जरूरतमंद को छात्रवृत्ति व मुफ्त पुस्तकें मिलतीं, सरकारी ट्रेनिंग इन्स्टिट्यूट्स में ढंग की ऐसी ट्रेनिंग मिलती जिससे लोग अपनी आजीविका कमा सकें, पढ़ाई में अच्छे परन्तु गरीब छात्रों को उच्चशिक्षा के लिए छात्रवृत्ति व ॠण सरलता से मिलता तो आरक्षण की आवश्यकता कभी ना पड़ती। आरक्षण रोते भूखे बच्चे के मुँह में चुप कराने को दिया सूदर है न कि असली दूध !
घुघूती बासूती
bahut accha likha hai