लाखों टन गेहूँ पर्याप्त और सुरक्षित भंडारण व्यवस्था के अभाव में बरसात का शिकार हो कर नष्ट हो गया और अब प्रदूषण और फैला रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर सरकार को कहा कि गेहूँ सड़ने देने के स्थान पर गरीबों को मुफ्त बाँट दिया जाए। खाद्य मंत्री का उत्तर था कि सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया है आदेश नहीं। लेकिन बाद में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वह सुझाव नहीं अपितु निर्देश था। इस पर विपक्ष ने संसद में सरकार को आड़े हाथों लिया और खाद्य मंत्री को यह कहना पड़ा कि यदि निर्देश है तो सरकार उस की पालना करेगी।
अब सोमनाथ चटर्जी ने यह सवाल उठाया है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस तरह का आदेश अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जा कर दिया है। इस मामले में पूर्व विधि मंत्री शांतिभूषण ने उन का साथ दिया है। उन के इन बयानों से एक नई बहस ने जन्म लिया है कि आखिर हमारी न्यायपालिका की स्थिति क्या है? और उस का अधिकार क्षेत्र क्या है? सोम दादा ने अपनी बात कहते हुए कहा कि कोर्ट का उद्देश्य सही था, लेकिन उस ने इस पर शायद कोई विचार नहीं किया कि इस का क्रियान्वयन कैसे होगा। हर न्यायिक आदेश को क्रियान्वयन के योग्य होना चाहिए। खाद्यान्नों पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का क्रियान्वयन संभव नहीं है। उन का यह भी कहना है कि यह आदेश सरकार के कामकाज में दखल है क्यों कि न्यायपालिका नीतियों पर निर्णय करने की भूमिका अदा नहीं कर सकती। हर संवैधानिक संस्था को अपनी भूमिका का सही ज्ञान होना चाहिए। इतने सारे मुकदमे लंबित हैं क्या सरकार या कोई अन्य ऐजेंसी बीच में पड़ कर यह कह सकती है कि हम मुकदमों का फैसला करते हैं। क्या एक शाखा ठीक से काम नहीं करती तो क्या दूसरी उस का अधिग्रहण कर लेगी? यदि सेना या एनएसजी सही काम नहीं करती है तो क्या न्यायपालिका उसे बताएगी कि उसे कैसे काम करना है?
शांतिभूषण ने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय का इरादा ठीक था लेकिन आदेश पारित करने में वह सभी सीमाएँ लांघ गया है। क्या नीति अपनानी है? यह बताना सर्वोच्च न्यायालय का काम नहीं है। उसे सरकार से गरीबों को अनाज बाँटने का आदेश देना गलत है। यदि कोई गरीब व्यक्ति सार्वजनिक वितरण प्रणाली से अनाज पाने का हकदार है और नही पाता है तो न्यायालय विशिष्ट आदेश पारित कर सकता है। लेकिन इस मामले में मुफ्त अनाज बाँटने की सरकार की कोई नीति नहीं है। कुछ अन्य विधिवेत्ताओं ने यह भी कहा है कि अब समय आ गया है कि सरकार को न्यायपालिका को सौंप दिए गए क्षेत्राधिकार को वापस लेने के लिए सुदृढ़ प्रयास करने चाहिए। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वन भूमि को गैर वन भूमि में परिवर्तित करने पर निगाह रखने का भी उल्लेख किया गया है।
सोम दादा और शांतिभूषण जी का हम आदर करते हैं, लेकिन उन की राय से इत्तफाक नहीं रखते। केवल सरकार, केवल विधायिका और केवल न्यायपालिका राज्य नहीं हैं। लेकिन तीनों मिला कर राज्य का गठन करते हैं। देश में सरकार की लापरवाही के कारण लाखों टन
सारी समस्या अपने कर्तव्यों को भूलकर केवल अधिकारों को याद रखने के कारण हुई है। यदि सभी संस्थाए अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करते रहे तो अधिकारों के अतिक्रमण का शायद प्रश्न ही नहीं उठे। आज आये दिन पुलिसकर्मियों की पिटाई इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। इसलिए माननीय नेताओं और विधि विज्ञों से निवेदन है कि ‘उद्देश्य सही था’ तो और सभी बातें गौण है। सही समय है कि न्यायालय के ‘सही उद्देश्य’ को कानूनी कुर्तकों में ना उलझाकर अपने कर्तव्यों को पूरा करने की नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब नेताओं के जनता से पिटने की खबरें अख़बारों की सुर्खियां बन जावेगी।
काजल जी के कमेंट से पूरी तरह सहमत।
अगर न्यायपालिका ने अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जा कर आदेश पारित किया है तो यह अवसर सरकार ने ही उस के लिए उपलब्ध कराया है।
लेख की भावना से पूर्णत: सहमत
इससे गरीबों का भला होगा हम तो यही चाहते भी हैं ।
इससे साफ जाहीर होता है की नेता कितने दंभी हो गए हैं। सर्वोपरि जनता है और जनता के हित में लिया गया कोई भी निर्णय कैसे गलत हो सकता है ?
अनाज के सड़ाकर ये नेता किसका भला कर रहे हैं !!
नेताओं को ज़िम्मेदारी से मुक्त रखा गया है उसीका फल है यह सब। जब किसी सरकारी नौकर की तरह ये तंख्वाह, भत्ते और पेंशन का आहरण कर रहे हैं तो ज़िम्मेदारी भी स्वीकार करें ।
सोम दादा और शांतिभूषन जैसे लोगों के खोखला दिमाग की वजह से न्याय और इंसानियत मरती जा रही है ..
निश्चित ही आपके संतुलित और सटीक विचार समझने के लिए पक्षपात रहित दृष्टि होनी क है. इस समय नेताओं व आवश्यकार्यपालिका में कर्त्तव्य भावना की भयंकर कमी है – शायद संवेदनशीलता किसी भी न्यायाधीश का वह श्रृंगार है जो नेताओं और भ्रष्ट कार्यपालिका को फूटी आंख नहीं सुहाता. कठिन से कठिन परिस्थिति में संवेदनशीलता के साथ न्याय वही न्यायाधीश करता है जो निर्लज्ज और निरंकुश शासक से भयभीत हुए बिना निर्णय देता है इन मानदंडो पर तो सर्वोच्च न्यायलय ने अनाज संबंधी निर्णय में कौन सा तकनीकी उल्लंघन किया है इस बारे में सोमदा और शांतिभूषण की टिप्पणी मौन हैं .
डर है कि कहीं न्यायालय की अतिसक्रियता का विवाद फिर से न पैदा हो जाए। जब सरकार सोई हो,तो आखिरी उम्मीद किससे रखी जाए?
Completely agree with your views…
nice
'तीसरे खंबे' को संबल करती, इस साहसिक पोस्ट के लिए धन्यवाद. यह नैतिक साहस भी सभी में नहीं होता.
४ सितम्बर जन्म दिन का बधाई कार्ड मिल गया होगा. दिली मुबारक बाद.
1.हमाने=हमारे
2….र्तव्य निभाती आई है, न कि सेना को यह कार्यभार निभाना पड़ा.
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से असहमत होने वाले दोनों महानुभाव अपने विषय के विशेषज्ञ हैं किन्तु सवाल केवल संविधान की धाराओं को परिभाषित करने भर का नहीं है. इसे संविधान की समग्रता में देखा जाना अत्यंत आवश्यक है. इसी संविधान में directive principles भी हैं जिन्हें संविधान की आत्मा माना गया है. सर्वोच्च न्यायालय अपने निर्णय लेते समय इन्हें नहीं भुला सकता, भले ही विधायिका को इनमें कोई रूचि न हो या नामी अधिवक्ताओं को इस प्रकार के निर्णयों में खामी नज़र आती हो.
यदि कार्यपालिका व/या विधायिका अपने काम में कोताही बरतें या अपना काम न करें तो उनका कोई कुछ भी न बिगाड़ सके ऐसी परिस्थिति कितनी भयावह होगी. किन्तु सौभाग्य से संविधान के सरंक्षक सर्वोच्च न्यायालय ने आजतक अपना दायित्य निभाया है, यह हमारे गणतंत्र के लिए गर्व की बात है. 42वें संविधान संशोधन ने तो एक बारगी मेरे देश का रास्ता ही बदल दिया होता यदि सर्वोच्च न्यायालय भी विधायिका के रास्ते हो लिया होता.
जब भी किसी देश में विधायिका व कार्यपालिका की अक्षम्य अकर्मण्यता का दौर चलता है तो सेनाएं हस्तक्षेप करती हैं, सौभाग्यशाली हैं हम भारतीय कि हमाने लोकतंत्र में न्यायपालिका अपना कर्तव्य निभाती आई है, न कि सेना.