गुर्जर आंदोलन का दावानल अन्याय से उपजे विद्रोह की लपट है
|गुर्जर आंदोलन के दावानल में राजस्थान को तपते पाँच दिन हो चुके हैं। कल सातवाँ दिन होगा। कल ही पिछले साल गुर्जर आंदोलन में पुलिस गोलियों के शिकार होकर मरने वाले गुर्जरों की बरसी भी है। इस दावानल की आँच राजस्थान से बाहर उत्तर प्रदेश और दिल्ली को तपा रही है। राजस्थान से होकर गुजरने वाला एक भी महत्वपूर्ण रेल और सड़क मार्ग नहीं जिस पर यातायात चल रहा हो। खास तौर से मुम्बई से दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मध्य रेल यातायात पूरी तरह ठप्प है। जिस का नतीजा है कि अब देश भर के लोग इस आंदोलन को कोसने लगे हैं। मीडिया में बयान आने लगे हैं। इधर हिन्दी चिट्ठों पर भी कुछ चिट्ठाकारों ने चिट्ठे लिखे हैं। इन चिट्ठों में गुर्जर आंदोलन से हो रही हानियों और क्षतियों पर ध्यान दिलाया गया है और जनसंपत्ति की हानि करने के लिए आंदोलन की निन्दा की गई है। मेरे विचार में यह निन्दा उचित नहीं क्यों कि हम किस से क्या अपेक्षा कर रहे हैं? यह सोचना होगा।
यहाँ तीसरा खंबा में गुर्जर आंदोलन पर आलेख देख कर आप को आश्चर्य हो रहा होगा। क्यों कि यह इस चिट्ठे की नीति ” न्याय प्रणाली पर चर्चा का मंच” के विरुद्ध प्रतीत हो रहा होगा। लेकिन ऐसा नहीं है। मैं पूर्व में भी चाणक्य के उल्लेख के साथ बार-बार बताता रहा हूँ कि उस ने कहा था कि राजा को न्याय करना चाहिए। जिस से उस के विरुद्ध विद्रोह नहीं हो। यहाँ गुर्जरों के साथ न्याय नहीं हुआ। वे विद्रोह पर हैं। मुझे उन में तातारों के लक्षण नजर आने लगते हैं। जो युद्ध के पहले सारे लोहे के हथियार बना डालते थे और सब कुछ घर, चूल्हा वगैरह नष्ट कर के युद्ध करते थे। ऐसा ही कुछ इधर भी देखने को मिल रहा है। इस आंदोलन को समझने के लिए कुछ गुर्जरों के बारे में जानना पड़ेगा।
राजस्थान में गुर्जर जाति की आबादी करीब 60 लाख से अधिक है, जो प्रदेश की जनसंख्या का करीब 10 % है। उसके हिसाब से उनकी कार्यपालिका में भागीदारी नगण्य है। कारण है कि गुर्जर बहुल क्षैत्रों में अधिकतम स्थान आरक्षित हैं, सो वहां वोट का अधिकार तो है पर किसे देना, या नहीं देना इनके हाथ में नहीं। वहां अपना प्रतिनिधि खङा करने का अधिकार नहीं है, इसलिए पंच से लेकर लोकसभा सदस्य का चुनाव करते समय इनकी मर्जी कोई मायने नहीं रखती। हम और आप सब जानते हैं कि इस निष्ठुर राजनैतिक युग में इनके हक की बात कौन करेगा? इसे राजनीतिक विडम्बना कहें या गुर्जरों का दुर्भाग्य कि समान आर्थिक, भौगोलिक और सामाजिक परिवेष में रहने वाली अन्य जातियों को संविधान ने आरक्षण मिला पर गुर्जर इस से वंचित रह गए। इसलिए स्वतन्त्रता के बाद सक्षम होते गए वर्गों के सामने इनकी स्थिति और बदतर होती चली गई। गुर्जरों में साक्षरता का प्रतिशत, नौकरियों में भागीदारी नगण्य है। 60 लाख की जनसंखया वाले समाज के 60 लोग भी ढंग के पदों पर नौकरी में नहीं। एक भी गुर्जर बङा अधिकारी नहीं है। गुर्जर राजस्थान की सबसे पिछड़ी जातियों में से एक है, इस जाति का एक भी व्यक्ति अखिल भारतीय सेवा में नहीं है, एक भी एस. पी., मुख्य चिकित्सा अधिकारी इस जाति से नहीं। छह पूर्वी जिलों में एक भी एमबीबीएस चिकित्सक गुर्जर नहीं।
जहाँ अन्य जातियों को विकास का लाभ मिला, वहीं यह जाति समय के साथ जहाँ की तहाँ खड़ी रही। इन में अन्य जातियों की तुलना में प्रतियोगिता की क्षमता नहीं है। सदियों से गुर्जर दुग्ध उत्पादन में लगे रह कर दुधारू जानवरों जैसा ही जीवन जी रहे हैं। राजस्थान में इनकी स्थिति मध्य-भारत के आदिवासियों जैसी ही है। वे सभ्यता से कटे हुए पृथक गांवों में रहते हैं। उन में शिक्षा अत्यल्प है।
भारत सरकार ने किसी भी जाति को अनुसूचित जनजाति में सम्मिलित करने के लिए कोई स्थाई बिंदु तय नहीं किए हुए हैं। लोकुर कमेटी ने कुछ बिन्दु तय किये हैं, जिन में भो
गोलिक पार्थक्य, पृथक से पहचानी जाने वाली संस्कृति, अन्य जातियों से संपर्क में हिचकिचाहट और भारी पिछड़ापन आदि सम्मिलित है। गुर्जर इन सभी बिन्दुओं को पूरा करते हैं। वे समूहों में गांवों में रहते हैं, पूरे के पूरे गांव गुर्जर समुदाय के ही हैं। उन की अपनी गूजरी बोली है। राजस्थान में एक भी कलेक्टर ऐसा नहीं जो उनकी बोली को समझ सके। उनकी संस्कृति प्रकृति पर निर्भर है, पेड़ काटना तक उन में अपराध माना जाता है। वे हिन्दू जाति व्यवस्था से अलग हैं, चारों वर्णों में उन का स्थान नहीं। वे बहुत से अंधविश्वासों से घिरे हैं, और परंपराओं का निर्वाह करते हैं। गोदना गुदवाते हैं। उन में अभी तक महिलाएं बेची और खरीदी जाती हैं। वे अपने घर झाड़ियों और फूस से बनाते हैं। देवनारायण, नन्हें भूमिया आदि उन के अपने देवता हैं। झाड़ फूंक पर चिकित्सा से अधिक विश्वास करते हैं। शिक्षा का स्तर न्यून है, गुर्जरों के अपने लोकगीत, नृत्य, संगीत हैं। वे आर्थिक व अन्य प्रकार की सहायता के लिए अपने जाति के सदस्यों पर निर्भर हैं। वे दूसरी जाति के लोगों से बहुत कम व्यवहार रखते हैं। लम्बे समय से अन्य जातियों से कटे रहे हैं।
1857 में अंग्रेजों ने उन्हें अपराधिक जनजाति के रूप में चिन्हित किया, 1924 में अपराधिक जनजाति अधिनियम में गुर्जरों को अपराधिक जनजाति में रखा। इस कानून को 1951 में समाप्त कर दिया गया। मीणा जाति को अनुसूचित जनजाति में ऱखा गया लेकिन उन के समान अवस्था वाले गुर्जरों को नहीं।
1950 में अनुसूचित जाति में शामिल करने के लिए आंदोलन शुरू हुआ। उन्हें 1981 में पिछड़ी जातियों में रखा गया और 1993 में अन्य पिछड़ी जाति आरक्षण प्राप्त हुआ।
गुर्जरों का अनुसूचित जनजाति में सम्मिलित किए जाने का आंदोलन 2000 में पुनः शुरू हुआ जब कर्नल बेसला ने इस का नैतृत्व सम्भाला। 2003 के विधान सभा चुनाव में वसुन्धरा राजे सिन्धिया ने उन्हें अनुसूचित जनजाति में शामिल कराने का आश्वासन दिया। 2006 में 14 घंटों तक रास्ता रोको आंदोलन चला जिसमें पुनः वसुन्धरा ने उन्हें आश्वासन दिया। लेकिन साल भर कुछ नहीं किया। मई 2007 में पुनः रोड़ रेल रोको आंदोलन हुआ शान्तिपूर्ण रूप से एकत्र लोगों को तितर बितर करने के नाम पर गोलियां चलाई गईं, जिस में 26 गुर्जर मारे गए थे। उस के बाद मीणा जाति विरोध पर उतर आई कि गुर्जरों को वे एसटी में शामिल नहीं होने देंगे। क्यों कि उन पर असर पड़ेगा। राजस्थान में एसटी कोटे की नौकरियों और राजनीति में 90% से अधिक उन का कब्जा है। ऐसा भी सुना गया था कि पिछले वर्ष मीणा अफसरों का गोली चलवाने में हाथ था जिस से आंदोलन हिंसक हो कर पिट जाए। फिर आश्वासनों में एक साल निकल गया। इस बार फिर वही कहानी दोहराई जा रही है।
वकीलों का किसी जातीय आंदोलन का समर्थन करना विचित्र जान पड़ेगा। लेकिन नोएडा के वकील गुर्जरों के समर्थन में हड़ताल पर चले गए हैं। इस से लगेगा कि उन का आंदोलन कितना उचित है।
गुर्जर आंदोलन का यह दावानल वास्तव में उनके साथ हुए अन्याय का प्रतिकार है, राज्य के प्रति विद्रोह की लपट है। लेकिन इस दावानल को शान्त कर पाना आज की राजनीति के लिए आसान नहीं। इन्हें कुछ मिलते ही मीणा जाति उग्र हो उठेगी। पिछड़ेपन को दूर करने का जो इलाज संविधान निर्माताओं ने खोजा था। वह दवा के स्थान पर दारू हो गया है। अब समाज को ही खा रहा है। मुझे तो लगता है कि आरक्षण की इस नाकाम और प्राणघातक दवा से छुटकारा पाने का श्रीगणेश हो चुका है। पिछड़ेपन के इलाज के लिए नई दवा ईजाद करनी होगी।
वाकई आपने इतनी विस्तृत जानकारी दी है….
बहुत सधे हुए शब्दों मे आपने इस आन्दोलन के शुरू होने की वजहों को पूरे विस्तार से बताया है ।
चुनाव जीतने के बाद भला किसे याद रहते है अपने वादे।
गुर्जर आन्दोलन के बारे में एकदम अनजान था. अच्छी जानकारी दी आपने, वरना मैं भी अबतक इस आन्दोलन को गाली ही दे रहा था.
आपने काफी विस्तार से समझाया कि गुर्जर आदोलन क्या है क्यों है। काश कि इन बातों को ये शासक लोग समझ पाते। इक बात मेरे दिमाग आई कि ये नेता जब चुनाव वादे करके सता मे आते तो फिर ये वादे को क्यों भूल जाते। क्या इस वादा खिलाफी की उन्हे कोई सजा नही मिलनी चाहिए ? दूसरी बात जब जाटो को ओ बी सी में शामिल किया गया था तब क्या गुर्जरो ने मीणा की तरह विरोध किया था? इन दिल्ली वाले गुर्जरो को देख सब समझते है कि सभी गुर्जर पैसे वाले होते है। आपको एक अच्छी पोस्ट लिखने के लिए धन्यवाद।
यह सच है कि अन्याय सहते सहते लोग फ़िर विद्रोही हो जाते है . हर विद्रोह के पीछे कुछ न कुछ कारन होते है . आपकी अभिव्यक्ति सच है . दिल से आपको धन्यवाद