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चार्टर एक्ट 1833 और वैधानिक केंद्रीयकरण : भारत में विधि का इतिहास-62

चार्टर एक्ट-1833
इंग्लेंड औद्योगिक क्रांति से गुजर रहा था। इसी औद्योगिक क्रांति से वहाँ एक नया वर्ग पैदा हो गया था। यह मजदूर वर्ग था। जिस की गांव की भूमि से किसानी से जड़ें कट चुकी थीं और वह कारखानों में आ कर एक उजरती मजदूर हो गया था। इस से एक नया वर्गआधारित सिद्धांत उबर रहा था जो बाद में मार्क्सवाद के नाम से जाना गया। इन नई परिस्थितियों ने इंग्लेंड की राजनीति को एक नया रंग दिया। यह एक उदार रूप था। 1833 में वहाँ चार्टर एक्ट-1833 पारित किया गया। इस कानून ने कंपनी के स्वरूप को तो बदला ही भारत में भी बड़े परिवर्तनों की रूपरेखा तैयार कर दी।
वैधानिक केन्द्रीयकरण
स कानून ने भारत में प्रशासन को एक केन्द्रीय स्वरूप प्रदान किया। बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल घोषित कर दिया गया। इस से मद्रास, मुंबई, बंगाल और अन्य सभी क्षेत्र सपरिषद गवर्नर जनरल के नियंत्रण में आ गए। इस कानून ने वैधानिक केन्द्रीयता को भी स्थापित किया। गवर्नर जनरल की परिषद में एक चौथे सदस्य का पदार्पण हुआ जिस का दायित्व विधि निर्माण के लिए कौंसिल को सलाह देना था। निदेशक मंडल ने मैकाले को इस काम के लिए मनोनीत किया। इस के साथ ही पहला विधि आयोग अस्तित्व में आया। चार्टर एक्ट की सिफारिशों के अनुरूप विधि आयोग ने यह देखना आरंभ किया कि किस तरह से भारतीय कानूनों का एकत्रीकरण और संहिताकरण किया जा सकता है।
रंग, जाति और धर्म आधारित भेदभाव की समाप्ति
चार्टर एक्ट की सब से महत्वपूर्ण बात इस की धारा 87 में अंकित थी, जिस में कहा गया था कि भारतीय और ब्रिटिशजनों के मध्य भारतीय प्रांतों में उन के रंग, जाति और धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। इस तरह ब्रिटिश भारत के प्रशासन में भारतीयों का प्रवेश आरंभ हुआ। लकत्ता स्थित सुप्रीम कोर्ट की अधिकारिता प्रेसीडेंसी नगर के सभी निवासियों पर प्रवृत्त होती थी। चाहे वे कहीं के भी नागरिक हों। मुफस्सल क्षेत्र का नागरिक वहाँ यूरोपीय व ब्रितानी लोगों के विरुद्ध वाद प्रस्तुत कर सकता था। लेकिन मुफस्सल क्षेत्र के न्यायालयों में ब्रितानी और यूरोपीय व्यक्तियों के विरुद्ध वाद नहीं लाया जा सकता था। इस तरह बंगाल में दो तरह की न्याय व्यवस्था चल रही थी। 1833 के अधिनियम से यह भेद समाप्त हो गया और अब कहीं भी किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध वाद लाया जा सकता था। गवर्नर जनरल को विधि निर्माण के लिए अधिकृत कर दिया गया था। वे निदेशक मंडल द्वारा अनुमोदित कानून माने जाते थे और उन्हें संसद के समक्ष प्रस्तुत किया जाता था। प्रथम विधि आयोग ने ही प्रथम बार भारतीय दंड संहिता का निर्माण किया था।
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