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मद्रास में थॉमस मनरो के सुधारों के बाद की दांडिक न्याय व्यवस्था : भारत में विधि का इतिहास-68

द्रास प्रेसीडेंसी में दांडिक न्याय लॉर्ड कॉर्नवलिस के सुधारों के अनुरूप ही प्रचलित था। 1807 में कार्यपालिका और न्यायपालिका के पार्थक्य के सिद्धांत को लागू करने पर गवर्नर को दंड न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद से मुक्त कर दिया गया। 1811 में मजिस्ट्रेटों की अधिकारिता का विस्तार कर के उन्हें एक वर्ष तक का कारावास 30 कोडों तक का दंड और 200 रुपए तक का अर्थदंड देने के लिए अधिकृत कर दिया।
1816 में सर थॉमस मनरो के सुधारों के अनुसार भारतीय व्यक्तियों को दांडिक न्याय प्रशासन के अंग के रूप में स्वीकार किया गया। ग्राम मुखिया को 24 घंटों तक के कारावास तहसीलदार को अर्थदंड देने के अधिकार दिए गए। 10वें विनियम द्वारा सिविल न्यायाधीशों को दांडिक अधिकारिता भी प्रदान की गई। वे सामान्य अपराधों के लिए छह मास तक के कारावास, 200 रुपए तक का अर्थदंड और 30 कोडों तक की सजा दे सकते थे। गंभीर और जघन्य अपराधों का विचारण केवल सर्किट न्यायालय द्वारा ही किया जा सकता था। 1816 में जिला मजिस्ट्रेटों की शक्तियाँ कलेक्टरों को प्रदान कर दी गईँ लेकिन सिविल और अपराधिक मामलों का विचारण करने की शक्ति केवल जिला न्यायाधीशों को ही थी। 1813 में पारित चार्टर के उपबंधों को 1820 में मद्रास में लागू करते हुए मुफस्सल क्षेत्रों में निवास करने वाले ब्रिटिश प्रजाजनों पर भी मजिस्ट्रेटों की अधिकारिता को लागू किया गया। 1825 में मजिस्ट्रेटों को 300 रुपए तक की चोरी के मामलों को निर्णीत करने का अधिकार दिया गया। 
1827 में सहायक न्यायाधीशों को संयुक्त दंड न्यायाधीश तथा अधीनस्थ कलेक्टर को संयुक्त मजिस्ट्रेट के अधिकार दिए गए। इस वर्ष के सातवें विनियम द्वारा भारतीय व्यक्तियों को दांडिक न्यायिक अधिकारी नियुक्त कर उन की अधिकारिता का विस्तार भारतीय व्यक्तियों पर किया गया। विदेशी व्यक्तियों पर उन्हें प्राधिकार नहीं दिया गया। इन भारतीय अधिकारियों को 1836 में मुख्य सदर अमीन संज्ञा दी गई। 1827 में पहली बार 25 से 65 वर्ष तक की आयु के हिन्दू और मुस्लिम व्यक्तियों को जूरी के रूप में नियुक्त करने का प्रावधान किया गया। उन का काम मुकदमे की कार्यवाही पूर्ण होने के उपरांत न्यायाधीशों को सुझाव देना था। जूरियों और न्यायाधीश में मतैक्य न होने पर मामला मु्ख्य दंड न्यायालय को प्रेषित करने का प्रावधान किया गया।
1833 में यह उपबंध किया गया कि दंड न्यायाधीश मामलों का अन्वेषण करने के लिए भारतीय दंडाधिकारियों और सदर अमीन को सौंप सकते हैं। इसी वर्ष महिलाओं को दंड से मुक्त रखे जाने का उपबंध भी किया गया। 1843 में सदर अमीन को अपराधी को बंदी बना कर विचारण हेतु जिला न्यायाधीश के न्यायालय में प्रस्तुत करने का अधिकार दिया गया। इसी वर्ष सर्किट न्यायालयों को समाप्त कर के उन की अधिकारिता नवगठित जिला न्यायालयों को दे दी गई। अब जिला न्यायाधीशों को जिला एवं सत्र न्यायाधीश कहा जाने लगा।
1854 में जिला मुंसिफों को छोटी चोरियों और सामान्य प्रकृति के अपराधों का विचारण कर निर्णीत करने का अधिकार दिया गया। इस तरह मद्रास की दांडिक न्याय व्यवस्था को बंगाल की न्यायिक व्यवस्था के अनुसार ही कर दिया गया। 1862 में उच्च न्यायालय की स्थापना के साथ ही मुख्य दंड न्यायालय (सदर निजामत अदालत) को समाप्त कर उस की अधिकारिता उच्च न्यायालय को अंतरित कर दी गई।
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