दास को उतना ही दो, जिस से वह जीवित रहे, मरे नहीं
|हम ने दास युग को नहीं देखा। उस के बारे में हमें इतिहास की पुस्तकों, साहित्य और कुछ अन्य साधनों से ही पता लगता है। दास युग के स्वामी अपने दासों को उतना ही भोजन उपलब्ध कराते थे जिस से उन का जीवन बना रहे और उन से सेवाऐं ली जा सकें, वे मरें नहीं।
हम आज विश्व के इस सबसे बड़े प्रजातंत्र में उसी दास युग की झलक देख सकते हैं और वह भी प्रजातंत्र की सबसे प्रमुख संस्थाओं के बीच के संबन्धों में।
वैसे तो हमारी न्याय पालिका महान है। वह प्रजातंत्र की रक्षक है। लेकिन उसे रोज सलाह दी जा रही है कि कानून बनाना संसद का काम है और राज करना भी। न्यायपालिका संसद को न सिखाए कि क्या कानून होना चाहिए या फिर राज कैसे किया जाना चाहिए।
लेकिन क्या संसद और सरकारें अपना काम बेहतर तरीके से कर रही हैं। मुझे लगता है कि हमारी संसद और सरकारों का व्यवहार के साथ वैसा होता जा रहा है, जैसा कभी स्वामियों का अपने दासों के साथ हुआ करता था।
हाल में भारत सरकार ने निर्णय किया है कि सुप्रीम कोर्ट में अब पाँच जज और बढ़ाए जाऐं, कि मुकदमों की संख्य़ा बहुत बढ़ गई है। इस निर्णय को क्रियान्वित होने में अभी काफी समय लगेगा। लेकिन आज जो स्थितियाँ है उन्हें देखते हुए इस कदम से कोई बड़ी राहत की उम्मीद करना जनता के लिए बेकार है।
सुप्रीम कोर्ट में लगातार लंम्बित मुकदमों में बढ़ोतरी हो रही है। दिसम्बर 2007 में आंकड़े बता रहे थे कि सुप्रीम कोर्ट में करीब 48,000 मुकदमें लम्बित हैं। हो सकता है यह आंकड़ा सितम्बर 2007 या जून 2007 का हो, क्यों कि न्यायपालिका में आंकड़े तिमाही आधार पर एकत्र किए जाते हैं।अब लम्बित मुकदमों की संख्या 60 हजार से ऊपर बताई जा रही है।
हमारे सुप्रीम कोर्ट में कोई भी पीठ ऐसी नहीं है जिस में कोई एकल जज बैठता हो। सबसे छोटी बैंच दो न्यायाधीशों की होती है। तीन न्य़ायाधीशों की फुल बैंच और फिर महत्वपूर्ण मामलों में पाँच और सात न्यायाधीशों की विशेष संविधान पीठें बनती हैं। खुद सुप्रीम कोर्ट के केलेण्डर के मुताबिक उसे इस साल केवल 191 दिन ही काम करना है। उस में भी न्यायाधीश अवकाश पर तथा दूसरे कामों में व्यस्त रहेंगे ही। साल में प्रत्येक जज के तीस दिन निकाल दें तो सुप्रीम कोर्ट केवल 161 दिन ही पूरी क्षमता से काम कर पाएगा।
तीस जजों में से कम से कम बारह तो फुल बैंचों में चले जाएंगे। शेष अठारह जजों से नौ बैंचे बनती हैं। प्रत्येक पीठ के लिए करीब चार हजार सात सौ मात्र। एक पीठ प्रतिदिन औसतन दो मामलों की सुनवाई कर निर्णय करे (जो कि असम्भव प्रतीत होता है) तो भी वह एक वर्ष में केवल 322 मुकदमों में निर्णय कर पाएगी और सुप्रीम कोर्ट की सारी पीठें मिल कर साल में लगभग 4000 मुकदमों का निपटारा कर पाऐंगी। यदि इस बीच एक भी नया मुकदमा न आए तो भी लम्बित मुकदमों का निर्णय करने में 15 वर्ष लग जाऐंगे। तस्वीर कितनी सुंदर है।
मैं ने अपनी बात दास युग से आरम्भ की थी। फिर आता हूँ। पाँच जजों के बढ़ाए जाने से हमारी न्याय प्रणाली को केवल मृत्यु होने से बचाया जा सकता है। उस से अधिक की आशा करना व्यर्थ है। सरकार ने पाँच जजों की सँख्या बढ़ा कर यही साबित किया है कि वह न्यायपालिका के साथ वही व्यवहार कर रही है जो दास युग के स्वामी अपने दासों के साथ किया करते थे। भारत के लगभग समान आबादी के देश चीन के सुप्रीम कोर्ट में 300 न्यायाधीश हैं। भारत को भी अगर अपनी न्याय प्रणाली को प्रतिष्टित रखना है, समाज को उस के सहारे व्यवस्थित रखना है, तो सुप्रीम कोर्ट में इतने जज तो होने ही चाहिए कि वहाँ किसी भी मामले में छह माह से अधिक समय नहीं लगे।
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तारीख पर तारीख पर एक दिन स्थिति विस्फोटक हो जायेगी। आपको क्या लगता है यह स्थिति कब आयेगी?
दिनेश जी होना तो ऎसा चहिये,कि मुकदमो के निर्णया का समय आधरित होना चाहिये,कम से कम ६ सप्ताह से ६ महीने के अन्दर ,ओर इस के लिये जजओ की कमी नही हमारे जहां, लेकिन यहां आप की बात सही लगती हे**दास को उतना ही दो, जिस से वह जीवित रहे, मरे नहीं **
एक मुक़दमा तो मेरे पिताजी भी पिछले २५ सालों से लड़ रहे है.
नतीजा अबतक सिफर.
भगवान् मालिक.
काश की ऐसा हो जाए।
यह मिरचुक वृत्ति (कंजूस की आदत) भारत के कई क्षेत्रों में व्याप्त है। पर यह कानून के क़्शेत्र में ज्यादा दीखती है।
वैसे बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर के हर कोण का यही हाल है। सड़क-बिजली-पानी बस उतना ही है कि दास मर न जाये!