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पंजाब की न्यायिक व्यवस्था : भारत में विधि का इतिहास-74


पंजाब को 1849 में ब्रिटिश भारत में सम्मिलित कर लिया गया। वहाँ जो न्यायिक व्यवस्था स्थापित की गई वह एक ही प्राधिकारी के अधीन सौंपी गई, जिसे न्यायिक आयुक्त (Judicial Commissioner) कहा जाता था। यह व्यवस्था जटिल होने के कारण सफल और उपयोगी सिद्ध नहीं हुई। 1861 में भारतीय विधान परिषद अधिनियम (Indian Council Act) पारित होने के उपरांत न्यायिक व्यवस्था को पुनर्गठित किया गया। 1865 के 19वें अधिनियम के अंतर्गत स्थापित की गई न्यायिक व्यवस्था इस प्रकार थी –
तहसीलदार का न्यायालय- यह सब से निम्न स्तर पर स्थापित किया गया न्यायालय था। जिस की अधिकारिता में 300 रुपए मूल्य तक के दीवानी मामले सुनवाई कर निर्णीत करने की थी।
सहायक आयुक्त का न्यायालय- यह 100 रुपए तक के साधारण दीवानी वादों की सुनवाई कर सकता था। 
विशेष न्यायिक शक्ति युक्त सहायक आयुक्त का न्यायालय- इस न्यायालय की अधिकारिता 500 रुपए तक की थी। 
 पूर्ण न्यायिक शक्ति युक्त सहायक आयुक्त का न्यायालय- इस न्यायालय को 1000 रुपए मूल्य तक के दीवानी वाद सुनने व निर्णीत करने का अधिकार दिया गया था।
उपायुक्त का न्यायालय- यह न्यायालय किसी भी मूल्य के दीवानी वादों की सुनवाई करने के लिए सक्षम था। यह न्यायालय  पूर्ण न्यायिक शक्ति युक्त सहायक आयुक्त के न्यायालय के अतिरिक्त तीनों निचले न्यायालयों के निर्णयों की अपीलें सुन सकता था। 
आयुक्त का न्यायालय- यह न्यायालय किसी भी मूल्य के दीवानी वादों की सुनवाई कर सकता था तथा पूर्ण न्यायिक शक्ति युक्त सहायक आयुक्त के न्यायालय व उपायुक्त के न्यायालय के निर्णयों की अपीले सुनने के लिए अधिकृत किया गया था। 
न्यायिक आयुक्त का न्यायालय- यह न्यायालय पंजाब में सर्वोच्च दांडिक  व दीवानी अपील न्यायालय के रूप में कार्य करता था। 
क्त सभी न्यायालयों को दांडिक अधिकार भी थे। आयुक्त का न्यायालय सिविल और सत्र न्यायालय के रूप में कार्य करता था। आयुक्त सिविल न्यायिक प्राधिकारी और दंड प्राधिकारी के रूप में काम करता था। अन्य अधीनिस्थ न्यायालय भी इसी तरह दोनों तरह का न्यायिक कार्य करते थे। 1919 में पंजाब के न्यायिक आयुक्त के न्यायालय की अधिकारिता लाहौर उच्च न्यायालय को अंतरित कर दी गई। 
पंजाब में प्रयुक्त की जाने वाली विधियों को सर्व प्रथम 1853 में पंजाब सिविल कोड के नाम से संकलन किया गया। इस के अतिरिक्त सपरिषद गवर्नर जनरल के ऐसे आदेश प्रवर्तित होते थे जो पूर्व की किसी विधि के प्रतिकूल नहीं होते थे। इस समय तक विधि अस्पष्ट थी। 1872 पंजाब लॉज एक्ट से प्रचलित विधि की विविधताओं को समाप्त कर के उसे एकरूप बनाने का प्रयास किया गया। इस के अंतर्गत हिन्दू और मुस्लिम व्यक्तिगत विधियों को पूरा संरक्षण प्रदान किया गया था।
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