पहले चिकित्सा, फिर एफआईआर कराएँ -सुप्रीम कोर्ट
|चिकित्सा में समय लगने के कारण प्राथमिकी में देरी अपराधी को सजा में बाधा नहीं
13 जनवरी 2000 को लोहड़ी का त्योहार था। उस रात हिमाचल प्रदेश के मंडी कस्बे एक घर में पार्टी चल रही थी। यह घर आयकर कार्यालय के चौकीदार यशपाल का था। इस पार्टी का आयोजन संजीव सेन ने किया था और इस में गणेश कौशल, संजीव राना और श्रवणकुमार शामिल थे। यशपाल और उस की पत्नी मोहल्ला पड्डल में किसी समारोह में गए हुए थे और वे रात को 9.30 बजे लौटे। यशपाल की पत्नी का स्वास्थ्य खराब था इस कारण से वह सोने चली गई। इस बीच चारों दोस्त पार्टी करते रहे। उन्हों ने एक बोतल शराब की खाली कर दी थी और कम आवाज में संगीत की धुन पर नाच रहे थे। रात को 10.30 बजे राकेश कुमार ने दरवाजा खटखटाया और दरवाजा खोलने पर कहा कि उसे किसने आवाज दी? गणेश कौशल ने जवाब दिया कि किसी ने भी उसे आवाज नहीं दी। गणेश ने उसे कमरे से बाहर चले जाने को कहा। कमरे से बाहर जाते हुए राकेश ने कहा कि तुम लोग समझ जाओ, नहीं तो मैं तुम्हारे सर धड़ से अलग कर दूंगा।
राकेश के जाने के बाद गणेश ने दरवाजा अंदर से बंद कर दिया और सब नाचते रहे। रात को 12-12.30 बजे के बीच संजीव सेन ने दरवाजा खोला और लघुशंका के लिए बाहर गया। जब वह बाहर निकला तो बाहर खड़े राकेश ने उस की छाती में चाकू से हमला किया। बाकी लोगों ने राकेश को पकड़ने की कोशिश की लेकिन वह भाग निकला। संजीव सेन की छाती से खून बह रहा था। गणेश ने श्रवण को खून रोकने के लिए उस की छाती दबाने के लिए कहा और खुद पड़ौसी के घर से रुई लाया। उन्होने संजीव सेन का प्राथमिक उपचार किया। इस के बाद वे ऑटोरिक्शा तलाशने दौड़े। वे दोनों उसे मंडी के संजीवन अस्पताल ले गए लेकिन उस निजि अस्पताल में कोई डाक्टर उपलब्ध नहीं था। वे उसे लेकर मंडी के जोनल अस्पताल पहुँचे तो रात के 1.20 बज गए थे। उसे चिकित्सा दी गई लेकिन रात डेढ़ बजे संजीव सेन की मृत्यु हो गई।
इस के उपरांत संजीव सेन के मित्रों ने थाने जा कर प्राथमिकी दर्ज कराई। संजीव सेन की हत्या करने के लिए राकेश पर मुकदमा चलाया गया। जिस में सबूतों के आधार पर उसे आजीवन कारावास और पाँच हजार रुपया जुर्माना, व जुर्माना न देने पर छह माह के कारावास की सजा सुनाई गई। राकेश ने अपील की तो हाई कोर्ट ने उसे बरी कर दिया। हिमाचल प्रदेश सरकार ने हाई कोर्ट के इस फैसले के विरुद्ध सु्प्रीम कोर्ट को अपील की।
हाई कोर्ट राकेश को बरी करने के कुछ अन्य आधार भी बताए थे लेकिन एक आधार यह भी था कि मामले की प्राथमिकी थाने में घटना के बहुत देर बाद दर्ज कराई थी। तर्क यह था कि राकेश को जानबूझ कर फंसाया गया, वह तो घटना के समय अन्यत्र मौजूद था। जब श्रवण और गणेश संजीव सेन को अस्पताल ले जा रहे थे तो रास्ते में पुलिस थाना पड़ता था और वे आराम से प्राथमिकी दर्ज करा सकते थे। यहाँ हिमाचल सरकार का कहना था कि जब मृतक घायल था तो मित्रों ने पहले उस की जान बचाने की कोशिश की और जब उन का प्रयास सफल न हो सका तो उन्हों ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हाई कोर्ट के निर्णय को गंभीर रूप से गलत बताते हुए कहा कि स्वाभाविक बात है कि यदि कोई घायल है तो उसे पहले अस्पताल ही ले जा कर उस की जान बचाने की कोशिश की जाएगी और बाद में पुलिस थाने जाया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट न
More from my site
20 Comments
This post appears to get a good ammount of visitors. How do you advertise it? It offers a nice unique twist on things. I guess having something real or substantial to talk about is the most important factor.
I’d have to settle with you one this subject. Which is not something I usually do! I enjoy reading a post that will make people think. Also, thanks for allowing me to comment!
ऐसे निर्णय देने वाले हाई कोर्ट के जज को उसकी मुर्खता के लिए दस साल तक उससे कोर्ट के स्वीपर का काम कराया जाना चाहिए / क्योकि ऐसा जज और ऐसे फैसले ही न्याय का अपमान करते हैं /
कई बार तो यह देखने मे आया है कि डो. लोग बगैर पुलिस के आये इलाज प्रारम्भ ही नही करते है भले ही मरीज कितना भी गम्भीर रूप से घायल क्यों ना हो ।
मानवीय संवेदनाओ और सहज व्यवहार के अनुरूप ही निर्णय दिया सर्वोच्च न्यायलय ने. यह उम्मीद करना की कोई मरणासन्न साथी को छोड़कर रिपोर्ट के चक्कर में पड़ेगा की अपेक्षा वाला निर्णय हो आश्चर्यजनक था…
मानवीय संवेदनाओ और सहज व्यवहार के अनुरूप ही निर्णय दिया सर्वोच्च न्यायलय ने. यह उम्मीद करना की कोई मरणासन्न साथी को छोड़कर रिपोर्ट के चक्कर में पड़ेगा की अपेक्षा वाला निर्णय हो आश्चर्यजनक था…
बिलकुल सही सलाह।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
जाहिर है इन निर्णयों का स्वागत करना चाहिए ….
सही निर्णय है.
अब सही फैसला आया है, वरना हमेशा यही होता है कभी रिपोर्ट दर्ज नही करते, कभी इलाज नही करते…
भले ही आपको बुरा लगे पर मन में इसे पढने के बाद जो सहज विचार आ रहा है वह ईमानदारी से लिख रहा हूँ :
ऐसे असंवेदनशील और अक्षम जज को हाईकोर्ट से सारे लाभ छीनकर लात मारकर बहार निकाल दिया जाना चाहिए, जो इतना भी कॉमन सेंस न रखता हो वह हाईकोर्ट तक कैसे पहुँच गया?
सही सुझाव और सही निर्णय .
बहुत ही अच्छी जानकारी. जब भी ऐसे मामलों में घायल को अस्पताल ले जाया जाता है तब वहां के डॉक्टर उपचार की जगह पुलिस में घटना की जानकारी देने की बात कहते हैं. इस ऊहापोह में मरीज को बचाने के बदले मार ही डाला जाता है.
v
एकदम सटीक जानकारी के लिये साधुवाद वाह
उचित निर्णय है उच्चतम न्यायालय का और मानवीय संवेदना के अनुकूल। अच्छी चर्चा।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बिलकुल सही पहले इलाज जरुरी है, लेकिन कई बार ड्रा इलाज भी नही करते बिना पुलिस रिपोर्ट के( ऎसा मेने फ़िल्मो मै देखा है) क्या यह सच है?
आप के इस लेख से बहुत कुछ जानने को मिला.
सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत ही विवेक्पुर्ण फ़ैसला दिया है.
रामराम.
दिनेश जी , न जाने क्यूँ मेरा मन करता है की ऐसे सभी निर्णयों में जो दिशा निर्देश निकल कर सामने आते हैं उन्हें आम जन के लिए किसी माध्यम ..या किसी पुस्तक..या और किसी जगह सुलभता से उपलब्ध कराया जाना चाइये…मगर भारत जैसे बड़ी जनसंख्या वाले देश में ऐसा संभव नहीं है…nischit ही फैसला ठीक रहा सर्वोच्च न्यायालय का ..
Surlrisingpy well-written and informative for a free online article.
आश्चर्य की बात है कि हाई कोर्ट ने बरी कैसे कर दिया। स्वाभाविक है कि पहले इलाज करवाया जाएगा और पुलिस के पास बाद में जाया जाएगा।
घुघूती बासूती