बम्बई में 1827 के बाद की न्यायिक व्यवस्था : भारत में विधि का इतिहास-71
|दीवानी न्याय व्यवस्था
बम्बई प्रेसीडेंसी में जल्द ही यह महसूस होने लगा कि 1827 के न्यायिक सुधारों में और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। 1828 में ही सदर दीवानी अदालत का मुख्यालय सूरत से मुम्बई स्थानांतरित कर दिया गया। लेकिन साथ ही गुजरात में एक अपील न्यायालय की स्थापना की गई जो 1830 तक काम करता रहा। 1830 में कमिश्नरों के न्यायालय पर से वादमूल्य की सीमा हटा दी गई और उन न्यायालयों को भारतीय पक्षकारों के मध्य किसी भी वाद मूल्य के मामले सुनने की अधिकारिता दे दी गई। पहले की तरह वे किसी यूरोपीय और अमरीकी के मामले में पक्षकार होने पर मामला नहीं सुन सकते थे। कमिश्नर के 50000 मूल्य तक के निर्णय के विरुद्ध वरिष्ठ सहायक न्ययाधीश के यहाँ अपील की जा सकती थी। इस से अधिक मूल्य के मामले में अपील सदर दीवानी अदालत को ही प्रस्तुत की जा सकती थी।
1836 में इन कमिश्नरों के न्यायालयों को विनिर्दिष्ट मामलों में अपील सुनने का अधिकार भी प्रदत्त कर दिया गया। कमिश्नरों की तीन श्रेणियाँ बना दी गई। देशज न्यायाधीश, मुख्य देशज न्यायाधीश और कनिष्ठ देशज न्यायाधीश। इन पदों पर कंपनी के अनुबंधित कर्मचारी ही नियुक्त किए जा सकते थे। देशज न्यायाधीश किसी भी मूल्य के दीवानी मामलों की सुनवाई कर सकते थे और मुख्य देशज न्यायाधीश व कनिष्ट देशज न्यायाधीश द्वारा दिए गए 100 रुपए मूल्य तक के मामलों की अपीलें सुन सकते थे। मुख्य देशज न्यायाधीश को 10000 रुपए और कनिष्ठ देशज न्यायाधीश को 5000 रुपए मूल्य तक के दीवानी वाद सुनवाई करने का अधिकार था। 1836 में पारित अधिनियम से यूरोपीय और अमरीकी पक्षकारों के मामले सुनने का अधिकार भी देशज न्यायाधीशों को दे दिया गया। अब देशज न्यायाधीश को मुख्य सदर अमीन, मुख्य देशज न्यायाधीश को सदर अमीन और कनिष्ठ देशज न्यायाधीश को मुंसिफ पदनाम दिए गए। यह न्याय व्यवस्था इस सिद्धांत पर आधारित थी कि प्रारंभिक रूप से मामला भारतीय न्यायाधीशों के समक्ष जाए और उन की अपीलें अंग्रेज न्यायाधीश सुनें। जिस से भारतीय न्यायाधीशों के आचरण और व्यवहार पर निगरानी रखी जा सके।
सन्1843 में सदर दीवानी अदालत में विशेष अपील प्रस्तुत किए जाने का प्रावधान किया गया। 1845 में सहायक न्यायाधीश नियुक्त कर उन्हें न्यायाधीश के समान अधिकारिता प्रदान की गई। 1850 में कलकत्ता के प्रार्थना न्यायालय की तर्ज पर बम्बई के लघुवाद न्यायालय स्थापित किए गए। 1853 में सदर दीवानी अदालत की अधिकारिता में संशोधन कर उसे विधि प्रश्नों से संबंधित विशेष अपीले सुनने की अधिकारिता भी दे दी गई लेकिन तथ्य से संबधित प्रश्नों पर विशेष अपील का अधिकार नहीं दिया गया। 1861 में बम्बई उच्च न्यायालय की स्थापना पर सदर दीवानी अदालत का क्षेत्राधिकार उसे हस्तांतरित कर दिया गया।
दांडिक न्याय व्यवस्था
गुजरात में 1828 में स्थापित किए गए सर्किट न्यायालय 1830 में समाप्त कर दिए गए। उन की अधिकारिता जिला न्यायाधीशों को अंतरित कर दी गई और उन्हें सत्र न्यायाधीश पदनाम दे दिया गया। इसी वर्ष मजिस्ट्रेटों को एक मास तक का सश्रम कारावास का दंड देने की अधिकारिता प्रदान की गई। 1833 में बम्बई के मुख्य नगरों में संयुक्त पुलिस अधिकारी की नियुक्ति का प्रावधान किया गया। 1835 में गवर्नर को जिलों में मजिस्ट्रेट नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। 1843 में यह उपबंध किया गया कि ब्रिटिश नागरिक मजिस्ट्रेटों द्वारा दिए गए दंड के विरुद्ध अपील कर सकते थे। जिला एवं सत्र न्यायालयों में काम की अधिकता को देखते हुए सहायक सत्र न्यायाधीश क
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6 Comments
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