ब्रिटिश प्रिवी कौंसिल में भारत से अपीलें : भारत में विधि का इतिहास-88
|प्रिवी कौंसिल |
1781 में सदर दीवानी अदालत की स्थापना पर यह उपबंध किया गया था कि 5000 पौण्ड से अधिक मूल्य के दीवानी मामलों की अपील प्रिवी कौंसिल को की जा सकती है। 1797 में यह उपबंध किया गया था कि निर्णय की अपील केवल छह माह की अवधि में ही प्रस्तुत की जा सकती थी। 1802 में मद्रास में सदर दीवानी अदालत की स्थापना होने पर यह उपबंध किया गया था कि उस के किसी भी निर्णय की अपील प्रिवी कौंसिल में की जा सकती है। 1812 में स्थापित बम्बई सदर दीवानी अदालत के निर्णयों पर भी यह प्रतिबंध था कि केवल 5000 पाउण्ड से अधिक मूल्य के मामलों में ही अपील प्रिवी कौंसिल के समक्ष की जा सकती थी।
1862 में प्रेसीडेंसी नगरों में उच्च न्यायालयों की स्थापना हो गई। इन उच्च न्यायालयों के 10000 हजार रुपए से अधिक मूल्य के दीवानी मामलों में दिए गए निर्णयों की अपील प्रिवी कौंसिल को किए जाने का उपबंध रखा गया। लेकिन इस के लिए हाईकोर्ट से मामले के अपील योग्य होने का प्रमाण पत्र प्राप्त करना आवश्यक किया गया। लेटर्स पेटेण्ट में यह स्पष्ट किया गया था कि उच्च न्यायालय द्वारा प्रमाण पत्र दे दिए जाने पर उस के किसी भी आरंभिक अधिकारिता के मामले में आदेश, डिक्री अथवा दण्ड के विरुद्ध अपील प्रिवी कौंसिल में की जा सकती थी। उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णीत केवल उन अपराधिक मामलों की अपील प्रिवी कौंसिल को की जा सकती थी जो उसकी आरंभिक अधिकारिता के थे या फिर जिन्हें उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को निर्देशित किया गया था तथा जिन में विधि का प्रश्न अंतर्वलित होता था।
1935 के भारत सरकार अधिनियम के अंतर्गत भारत में फेडरल न्यायालय का गठन किया गया था। अधिनियम में उपबंध था कि इस की आरंभिक अधिकारिता के मामलों के निर्णयों की अपील प्रिवी कौंसिल को की जा सकती थी और उस के लिए किसी तरह की अनुमति की आवश्यकता नहीं थी। लेकिन अन्य निर्दिष्ट मामलों में प्रिवी कौंसिल को अपील फेडरल न्यायालय अथवा प्रिवी कौंसिल की पूर्व अनुमति से ही की जा सकती थी। इन के अतिरिक्त स्वयं प्रिवी कौंसिल किसी भी मामले में अपील की विशेष अनुमति दे कर अपील सुन सकती थी। लेकिन इस तरह के मामले वे ही होते थे जिन में विधि के प्रश्न अंतर्वलित होते थे, या न्याय का हनन हुआ होता था या फिर जनहित के तथ्य निहित होते थे। अपराधिक मामलों में विशेष अनुमति प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर होता था। केवल दंड प्रक्रिया संहिता
के किसी उपबंध की व्याख्या के मामले ही विशेष अनुमति अपील के योग्य समझे जाते थे।
सुंदर जानकारी जी. धन्यवाद
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Pranaam……
badiya jaankari…
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