DwonloadDownload Point responsive WP Theme for FREE!

भारत शासन अधिनियम 1935 और विधि व्यवस्था -2 : भारत में विधि का इतिहास-85

भारत शासन अधिनियम 1935 में उच्च न्यायालयों को पूर्व में प्राप्त अधिकारिता को ही अनुमोदित किया गया था। उन्हें 1915 के अधिनियम के अंतर्गत देशज प्रथाओं और रूढ़ियों से शासित राजस्व मामलों के विचारण का अधिकार नहीं था, लेकिन उन्हें इन मामलों पर अपीली अधिकारिता प्राप्त थी और वे राजस्व के मामलों में हुए निर्णयों की अपील सुन सकते थे।
उच्च न्यायालयों को इस अधिनियम से अधीनस्थ न्यायालयों पर अधीक्षण की शक्ति प्रदान की गई थी। वे अधीनस्थ न्यायालयों को विवरण प्रस्तुत करने का निर्देश दे सकते थे और उन के लिए प्रक्रिया संबंधी नियम बना सकते थे, प्रभावी होने के पूर्व जिन का अनुमोदन राज्य सरकार से होना आवश्यक था। इस अधिनियम में यह स्पष्ट नहीं था कि वह अधीनस्थ न्यायालयों के मुकदमों का स्थानांतरण कर सकता था या नहीं। लेकिन वह अधीनस्थ न्यायालय को किसी भी मामले को अपने सामने प्रस्तुत करने का आदेश दे सकता था और उसे निर्णीत कर सकते था।
उच्च न्यायालय द्वारा 50000 रुपए से अधिक मूल्य के मामलों में संघीय न्यायालय में अपील की जा सकती थी। इस संबंध में उच्चन्यायालय को यह विचार करने का अधिकार दिया गया था कि उस मामले में कोई ऐसा प्रश्न अंतर्वलित है या नहीं जो अपील के योग्य है। अपील के योग्य प्रश्न पाए जाने पर वह अपील किए जाने के लिए प्रमाण पत्र जारी कर सकता था। यदि इस तरह का प्रमाणपत्र जारी न किया जाता था तो पक्षकार संघ न्यायालय से विशेष अनुमति प्राप्त कर अपील कर सकता था।
इस अधिनियम में उच्च न्यायालयों की अर्थव्यवस्था का दायित्व राज्य सरकारों को अवश्य दिया गया था लेकिन ऐसी व्यवस्था थी कि वे न्यायालयों को किसी प्रकार भी प्रभावित कर सकें। इस तरह यह अधिनियम न्यायालयों के प्रसार और स्वतंत्र न्यायपालिका  के विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कदम था। जिस की नींव पर स्वतंत्र भारत की न्यायपालिका खड़ी हो सकी।
Print Friendly, PDF & Email
5 Comments