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मद्रास में राजस्व और पुलिस व्यवस्था : भारत में विधि का इतिहास-69

राजस्व व्यवस्था
द्रास में 1786 में भू-राजस्व मंडल की स्थापना की गई थी, जिस का उद्देश्य भू-राजस्व व्यवस्था को सुचारू बनाना था। 1794 में मंडल के अधीन प्रत्येक जिले में जिसे उन दिनों सरकार कहा जाता था एक-एक कलेक्टर नियुक्त कर उन्हें भू-राजस्व संबंधी अधिकार दिए गए थे। 1798 में भू-राजस्व की व्यवस्था के लिए विनियमों की एक संहिता जारी की गई और साथ ही बंगाल की व्यवस्था के अनुरूप ही जिला न्यायाधीशों को भू-राजस्व से संबंधित मामलों की सुनवाई करने का अधिकार दे दिया गया। लेकिन जिला न्यायाधीश कानूनी जटिलताओं और कार्याधिक्य के कारण राजस्व विवादों के हल में अपेक्षित परिणाम नहीं दे सके और पक्षकारों को न्याय प्राप्त करना दूभर हो चला। इन परिस्थितियों में 1818 में कलेक्टर और उस के अधीनस्थ अधिकारियों को राजस्व विवादों का निपटारा करने का अधिकार प्रदान कर दिया। इस के साथ ही जमींदारी प्रथा के स्थान पर रैयतवाड़ी प्रणाली स्थापित की गई।
जमींदारी के अंतर्गत जमींदार से यह अनुबंध होता था कि वह उस की जमींदारी में आने वाली कृषि भूमि का इकट्ठा लगान कंपनी को भुगतान करेगा। जमींदार किसानों से लगान इकट्ठा करता था। रैयतवाड़ी के अंतर्गत कंपनी द्वारा सीधे किसानों को भूमि का स्वामी पंजीकृत कर लिया गया और उन से लगान वसूल किया जाने लगा।  नियमित रूप से लगान अदा करते रहने पर उन्हें भूमि से बेदखल नहीं किया जा सकता था। वे अपनी भूमि को लीज पर दे सकते थे या किसी तरह से हस्तांतरित कर सकते थे। 1822 में कलेक्टर को मध्यस्थ के रूप में मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार प्रदान किया गया। लेकिन यह व्यवस्था अधिका उपयोगी सिद्ध नहीं हुई।
पुलिस व्यवस्था
न्याय, शांति और व्यवस्था के लिए पुलिस एक आवश्यक उपकरण थी। 1816 में मद्रास में पुलिस व्यवस्था में सुधार के प्रयत्न किए गए। गांव के मुखिया और चौकीदार को अपराधी को बंदी बनाने के अधिकार प्रदान किए गए। वे बंदी बनाए गए अभियुक्त को जिला पुलिस अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करते थे। सामान्य प्रकृति के मामलों में निपटारा खुद मुखिया भी कर सकता था। उस समय तहसीलदार पुलिस का प्रमुख अधिकारी होता था जो बंदियों को विचारण के लिए दंड न्यायालयों के सुपुर्द करता था। उस समय मजिस्ट्रेट का मुख्य कार्य पुलिस की सहायता से इलाके में शांति बनाए रखना होता था। उन्हें जमींदारों को पुलिस की शक्तियाँ प्रदान करने का अधिकार भी था। 1818 में कलेक्टर को मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ प्रदान कर देने से उस का पुलिस पर भी नियंत्रण स्थापित हो गया था। दरोगाओं की शक्तियाँ अधीनस्थ भू-राजस्व अधिकारियों और गांव के चौकीदारों को अंतरित कर दी गई थीं। 1821 में मजिस्ट्रेटों को अधिकार दिया गया कि वे अपराधिक मामलों में जाँच करने के लिए अधीनस्थ कर्मचारियों को निर्देशित कर सकते थे। 1822 के कानून के अंतर्गत जिले के पुलिस प्रमुख को 10 दिन तक के सश्रम कारावास का दंड देने का अधिकार इस शर्त के साथ दिया गया था कि वे किसी अपराधी पर शारीरिक दंड का निष्पादन नहीं करेंगे। 1837 के कानून के अंतर्गत जिला पुलिस प्रमुख को दोषी अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के सुपुर्द करने का अधिकार प्रदान किया गया।
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