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मुस्लिम विधि का पदार्पण और अकबर का धार्मिक न्याय को अधीन करने का युग परिवर्तनकारी कदम: भारत में विधि का इतिहास-7

300 ईस्वी पूर्व से 12 वीं शती तक प्राचीन धार्मिक विधियों और अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के अनुरूप ही न्याय व्यवस्था चलती रही। धार्मिक और नैतिक नियम न्याय का मुख्य आधार होते हुए भी राजाज्ञा और राजा द्वारा बनाए गए नियम अधिक प्रभावी होते थे। 712 ई. में मुहम्मद बिन कासिम ने भारतीय राज्यों के उत्कर्ष को मंद कर दिया। 1024 ई. में गजनवी भारत आया और लूटपाट कर चला गया। 1120 में मुहम्मद गौरी के आक्रमण के उपरांत उसके एक गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में मुस्लिम शासन की नींव डालने का काम किया। यहीं से भारत में मुस्लिम विधि का प्रवेश हुआ।  सल्तनत काल में सुल्तान का चयन मुस्लिम जगत के धर्मगुरू खलीफा द्वारा किया जाता था। सुल्तान सर्वशक्ति संपन्न होते हुए भी सिद्धांत रूप में खलीफा के अधीन रहते हुए शासन करता था। इस तरह यह शासन मुस्लिम विधि के अनुरूप ही संचालित होता था। इस के साथ  ही भारत में मुस्लिम विधिशास्त्र का आरंभ हुआ। बाद के मुगल सम्राट भी इसे ही कुछ संशोधनों के साथ स्वीकार करते रहे। यह शासन और न्याय व्यवस्था इस्लाम धर्म की  मान्यताओं पर आधारित थी। जो भारत के निवासियों के धर्म, जीवन दर्शन, परंपराओं और आदर्शों के अनुकूल नहीं थी। मुस्लिम शासकों में सर्वप्रथम शेरशाह सूरी ने भारत के सामाजिक-राजनैतिक ढाँचे को व्यवस्थित करने के लिए उपयुक्त प्रशासनिक व्यवस्था की नींव रखी। इसे गतिशील और मजबूत बनाने और विकासोन्मुख दिशा प्रदान करने के लिए सर्वाधिक प्रयत्न मुगल शासक सम्राट अकबर ने किए।

म्राट अकबर ने राज्य के दैवी सिद्धांत को अपना कर विधि और न्याय के क्षेत्र में एक नए युग का सूत्रपात किया। सम्राट अकबर ने 1579 में मुस्लिम न्यायाधिकारी उलेमा से आदेश पत्र के माध्यम से इस्लाम के विवादग्रस्त मामलों में विधि की व्याख्या करने का लिखित अधिकार हासिल कर लिया। तत्कालीन न्याय व्यवस्था के लिए यह एक क्रांतिकारी कदम था, जिस से उसने प्रशासनिक सत्ता में धार्मिक सत्ता का समावेश कर के स्वयं को मुस्लिम और गैर मुस्लिम प्रजा के लिए पक्षपात रहित घोषित किया और बाह्य हस्तक्षेप पर पूर्ण अंकुश लगा दिया।  सम्राट अकबर के  इस कदम को युग परिवर्तनकारी  कहा  जा सकता है, जिस से  न्याय और विधि के क्षेत्र में धार्मिक पदाधिकारियों के हस्तक्षेप के अंत का सूत्रपात हुआ। औरंगजेब के पूर्व तक सभी मुगल शासक इसी धर्म निरपेक्ष, उदार, समानता और सद्विवेक  के सिद्धान्तों पर आधारित प्रशासनिक और न्यायिक नीति का अनुसरण करते रहे।

विधि के नए उपकरण
मुगल काल में व्यवहार मामलों के लिए हिन्दू और मुस्लिम प्रजा के लिए उन की पृथक -पृथक धार्मिक विधियों को मान्यता प्रदान की गई थी। मुस्लिम नागरिकों के लिए कुरआन की पवित्र विधि, सुन्ना (पैगम्बर मुहम्मद के उपदेश, कार्य और कथन), इज़माअ (पैगम्बर साहब के साथियों, अनुयायियों और उत्तराधिकारियों के निर्णय), नजीर (विधिमान्य न्यायालयों  के पूर्व निर्णय), सम्राट के फरमान, इस्तिहसान (न्यायिक साम्य), उर्फ (स्थानीय प्रथा) आदि को प्रधानता प्रदान की गई थी। वहीं हिन्दू नागरिकों के लिए दीवानी मामलों में शास्त्रोक्त धर्म विधि के साथ सामाजिक

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