श्री जमील अहमद कोटा में वरिष्ठ वकील हैं। बातों ही बातों में उन से एक दिन मैं ने पूछा कि मुस्लिम विवाह किस तरह से एक संविदा (कंट्रेक्ट) है? उन का उत्तर था कि मुस्लिम विवाह एक संविदा है ही नहीं वह एक ‘पवित्र बंधन’ है। अब चौंकने की बारी मेरी थी। क्यों कि मुस्लिम विवाह को सभी विधिज्ञों ने अब तक संविदा ही माना है। इधर भारतीय धर्मावलंबी जिन्हें हिंदू के रूप में परिभाषित किया गया है वे भी विवाह को एक पवित्र बंधन मानते हैं। मैं ने उन्हें कहा कि वे इस पर एक आलेख लिखें कि किस तरह से मुस्लिम विवाह एक संविदा नहीं है, जिसे लोगों के समक्ष रखा जा सके। वे इस के लिए तैयार हो गए। जमील भाई ने मुझे अपना आलेख भिजवाया है मैं उसे बिना किसी संशोधन के आप के समक्ष रख रहा हूँ। इस आलेख में उन्हीं की राय अभिव्यक्त की गई है। मैं उन की राय से इत्तफाक नहीं रखता। अपनी राय मैं बाद में आप के सामने रखूंगा। अभी आप उन का आलेख पढ़िए।
मुस्लिम कानून के तहत विवाह और विवाह विच्छेद
जमील अहमद, एडवोकेट
विवाह (निकाह)
संपूर्ण मुस्लिम कानून ‘क़ुरआन’ पर आधारित है।‘क़ुरआन’ ईश्वर (अल्लाह) का संदेश है, जो संपूर्ण मानव जाति के लिए मार्गदर्शन है। ‘क़ुरआन’ संपूर्ण संसार में प्रकट करता है कि-
‘सब चीजें हमने जोड़े में बनाई हैं’ (अल ‘क़ुरआन’-51:59)
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक जीवन की सब से महत्वपूर्ण समस्या यौनसंबंध हैं, इन्हें एक रीति में बदल कर नियमबद्ध करना है ताकि मनुष्य की पाशविक प्रवृत्ति जागृत और हावी नहीं हो सके। बिना इस के मामुदायिक जीवन पर नियंत्रण किया जाना संभव नहीं है और बिना इस के सामुदायिक जीवन में चरित्र, मानसिकता तथा उसे छिन्न-भिन्न होने से नहीं बचाया जा सकता है। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इस्लाम ने पति-पत्नी के रिश्ते को नियमबद्ध किया है, जिसे ‘विवाह’ की संज्ञा दी गई है।
इस्लाम ने उन पुरुष और स्त्रियों को साथ-साथ रहने के लिए मनाही की है जो प्राकृतिक रूप से एक दूसरे से बहुत नजदीक रिश्तों में होते हैं। इस्लामी कानून के अनुसार निम्नलिखित रिश्ते एक दूसरे से आपस में विवाह नहीं कर सकते हैं-
माता और पुत्र, पिता और पुत्री, भाई और बहिन, चाचा और भतीजा, चाची और भतीजा, सौतेला पिता और पुत्री, सौतेली माता और पुत्र, सास और दामाद, तथा अन्य नजदीकी खूनी रिश्ते …. (‘क़ुरआन’- 4:23-25)
इसी प्रकार इस्लाम द्वारा पुरुष और स्त्री को अवैध वैवाहिक जीवन से निषिद्ध कर देने के पश्चात वे उन रिश्तों से यौन संबंध स्थापित करने के बारे में सोच भी नहीं सकते सिवाय उन व्यक्तियों के जिन का चारित्रिक पतन हो चुका है और जिन की पाशविक प्रवृत्ति इतनी हावी हो चुकी है कि वे अपने को चरित्र के अनुशासन की सीमाओं में बांध कर रखने के काबिल ही नहीं रहे हों।
इस्लाम ने उन स्त्रियों से विवाह करने की सख्त मनाही की है जो पहले से किसी अन्य पुरुष से विवाहित हों।
‘और तुम्हें मनाही है कि तुम किसी अन्य से विवाहित पत्नी से विवाह करो।’ (‘क़ुरआन’ 4:24)
इस प्रकार व्यभिचार पर प्रतिबंध लगा कर इस्लाम ने अवैध यौन संबंधों के सारे रास्ते बंद कर दिए हैं परन्तु मनुष्य की पाशविक प्रवृत्ति की हविस को पूरा करने के लिए तथा इन्सानी आबादी को बढ़ाने में योगदान देने के लिए यह आवश्यक है कि यौन संतुष्टि का एक रास्ता खुला हुआ हो। इस्लाम के अनुसार मनुष्य द्वारा यौन इच्छापूर्ति किसी भी अन्य प्रकार से अवैध यौन संबंधों के जरीए पूरी नहीं की जानी चाहिए ना ही खुल्लमखुल्ला या बेशर्मी से की जानी चाहिए। बल्कि उस के लिए इस्लाम ने एक आचार संहिता कायम कर दी है, जिसे विवाह का नाम दिया गया है ताकि समस्त समाज को उस रिश्ते का पता चल जाए कि फलाँ स्त्री फलाँ पुरुष के लिए है, जो उस की पत्नी कहलाएगी।
‘यह तुम्हारे लिए नियमबद्ध कर दिया गया है कि तुम ऐसी स्त्री अपने लिए तलाश करो जो किसी अन्य की पत्नी नहीं हो, बशर्त है कि तुम उसे अपनी पत्नी के रूप में वैवाहिक जीवन में साथ रखो ना कि उसे अपनी अनुज्ञा में रखो।’ (‘क़ुरआन’4:24-25)
पैगम्बर-ऐ इस्लाम के अनुसार –
‘तुम्हें विवाह करना चाहिए, क्यों कि यह ही सब से अच्छा तरीका है जो तुम्हें पराई स्त्री पर बुरी निगाह रखने से तथा यौन दुराचार से बचा सकता है, और जिस के पास विवाह के लिए साधन नहीं हो तो वह व्यक्ति रोजा (उपवास) रखे, क्यों कि रोजा यौन इच्छा को समाप्त करता है।’ ( अल-तरमजी)
इस प्रकार विवाह “इस्लाम” के नजदीक मनुष्य की यौन इच्छा पूर्ति के लिए ना ही अनुज्ञा (लायसेंस) है ना ही संविदा (कंट्रेक्ट) है। यह तो एक सामाजिक व्यवस्था है जो पुरुष और स्त्री को मनुष्यता की सीमाओं में बांधे रखती है।
इस्लाम के कानूनों के अनुसार विवाह को ‘निकाह’ का नाम दिया गया है। इस्लाम धर्म के अनुयायी एक समय में चार पत्नियों तक अपनी अपनी निकाह में रख सकने के अधिकारी हैं।
‘तुम अपनी इच्छा की स्त्री से विवाह करो, दो, तीन या चार तक। लेकिन उन के साथ इन्साफ करो। यदि नहीं कर सकते हो तो केवल एक ही करो।’ (‘क़ुरआन’- 4:3)
‘उन्हें दायित्व अथवा उपकार के रूप में मेहर अदा करो। यदि वे स्वयं मेहर अथवा उस का कोई भाग माफ कर दें तो उस का उपभोग करो।’ (‘क़ुरआन’4:4)
इस प्रकार विवाह (निकाह) में मेहर पति पर अपनी पत्नी के लिए एक दायित्व अथवा उपकार है। विवाह एक पवित्र (सेक्रेड) बंधन है, कोई अनुबंध नहीं है।
श्री जमील अहमद साहब ने इस आलेख के दूसरे भाग में मुस्लिम विवाह विच्छेद (तलाक) को व्याख्यायित किया है। उसे आप अगले अंक में पढ़ सकेंगे।
I’d have to be of the same mind with you on this. Which is not something I typically do! I really like reading a post that will make people think. Also, thanks for allowing me to comment!
stellar blog you occupy
शीबा ने अकाट्य सत्य सी दिखने वाली बात के बीच जिस बहस औऱ तर्क को सामने लाया है उसे देखा-समझा जाना जरुरी है। कई बार चीजें और मान्यताएं डिफैमिलिएशन के तौर पर काम करती है और हम उसे निबाते हुए भी सवाल नहीं करते। इन सबों पर सवाल खड़े किए जाना जरुरी है।.
Dinesh Rai Dwivedi ji ka comment jo mujhe aaj mila jiske jawab mein maine uprokt comment bheja , usey yahan bhi post kar rahi hun, pardarshita bani rehni chahiye ki kisne kya kaha.
"जनाब जमील अहमद साहब सीनियर एडवोकेट हैं। इस लेख में उन की राय है, मेरी नहीं, मैं पहले ही कह चुका हूँ कि मैं उन की राय से इत्तफाक नहीं रखता। इत्तफाक न होने के कारण ही मेरी उन से दर्ख्वास्त थी कि उसे सब के सामने रखा जाए। जिस से कुछ तो विचार विमर्श हो और सच सामने आए। आप का बहुत बहुत शुक्रिया कि आप ने अपनी सुलझी हुई बात को यहाँ रखा।"
Adab Dwivedi Saheb,
Mera comment bhi Advocate Saheb ko hi mukhatib hai, mujhey maloom hai ki is tarah ki aadhi-sachhi aadhi-jhoothi vyakhyaon se aapka kuchh bhala nahiN honey wala, yeh to sirf Musalman mardoN ke kaam ki haiN.
Khuloos aur ehtram ke saath,
Sheeba Aslam Fehmi
Sheeba Aslam Fehmi जी की टिप्पणी ने पोस्ट की रोचकता बढ़ा दी है. हमें तो बस जानकारी लेना और अपना ज्ञान बढ़ाना है।
sheershak aur lekh mein koi sambandh nahiN baith raha hai. Shayad agli kadi meiN baat kahiN pahunchey. Kuchh aur apattiyan is tarah hain :
1).Yeh nishkarsh bilkul ghalat hai ki Nikah ek tarah ka 'contract' nahiN hai.
2). Ek makkari bhari adhuri baat yeh ki 'Allah char biwiyon ki ijazat deta hai'. Quran mein saaf likha hai ki ' 'tumharey liye achha hai ki tum ek (biwi) hi karo'. Islam Char biwiyon se zyada ki ijazat nahin deta hai kyunki us samay 100 biwiyan tak hoti thiN Arbon ke haram mein. To janab yeh ijazat nahin pabandi thi, aur chaar-biwi ki ijazat sirf Madina ke Musalmanon ko isliye di gayi thi ki 'Uhud' ki jung mein 50% se adhik naujawan purush abadi mari gayi thi aur yateemon ko durachar aur badhali se bachana tha.
3). Mehar agar patni k prati 'dayitwa' hai to phir 'upkar' kaisey ho sakta hai. kartawya ya farz aur 'ahsan' mein kya koi farq nahi hota? Meher biwi ka haq hai na'ki us par ahsan!
Nikah mein aurat ki marzi aur Biwi ke adhikaron par bhi zaroor charcha kijiyega.
Main jahan ghalat huN wahan aapse seekhne ko tayyar hun lekin jahan aap theek nahiN wahan aapko sikhane ko bhi…ummeed hai aapki mardani ana is meiN aadey nahiN aaeygi.
Ehtram k saath.
Sheeba Aslam Fehmi.
नई बात जानने को मिली ।
आभार जानकारी का.
अगली कडी का इंतजार है, धन्यवाद इस जानकारी के लिये
गहन जानकारी,आभार.