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वे न्याय नहीं करते, केवल नौकरियाँ करते हैं और पदोन्नतियों के लिए काम करते हैं

ज साहब के इजलास में भीड़ लगी है। जज साहब के ठीक सामने डायस से सट कर चार-पाँच वकीलखड़े हैं। उन में से एक वकील जज साहब को मुकदमे में अपने पक्षकार के पक्ष की बहस सुना रहा है। विपक्षी वकील बहस का उत्तर देने के लिए कुछ नोट करता जा रहा है। दोनों वकीलों के पीछे एक-दो सहायक वकील और मुवक्किल खड़े हैं। बहस करने वाला वकील बीच में अपने सहायक से कोई किताब मांग लेता है और वकील उस में से कोई उद्धरण जज को सुनाने लगता है। जज की विशाल टेबल के दायीँ और रीडर बैठा है। उस के पास भी दो एक वकील और कुछ मुंशी भिड़े हुए हैं। जिन मुकदमों की फाइलें रीडर के पास हैं. वह उन में तारीखें दे रहा है और मुकदमो की फाइलों में रोज की ऑर्डरशीट लिख रहा है। वह बीच बीच में जरूरत पड़ने पर जज का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर निर्देश प्राप्त कर लेता है। कभी कभी कोई बाबू या चपरासी कोई फाइल ले कर जज के पास पहुँच जाता है और जज उस की बात सुन कर निर्देश दे देते हैं। तब तक बहस रुक जाती है। जज की टेबुल के बायीं और एक टाइपिस्ट बैठा टाइप कर रहा है। वहाँ एक गवाह के बयान हो रहे हैं। विपक्षी वकील गवाह से जिरह कर रहा है। वकील के सहायक देख कर जिरह करना सीख रहे हैं, उन के लिए यह जिरह एक कक्षा है। जिस पक्ष का गवाह है उस पक्ष का वकील ध्यान से जिरह को देख-सुन रहा है जिस से उस के मुवक्किल और गवाह को विश्वास बना रहे। यदि जिरह करने वाले वकील ने कोई आपत्तिजनक प्रश्न पूछा तो वह आपत्ति अवश्य करेगा। गवाह की जिरह की ओर जज का बिलुकल ध्यान नहीं है। वह उस ओर ध्यान दे तो जिस मुकदमे की वह बहस सुन रहा है उस पर से उस का ध्यान हट जाएगा। बहस और बयानों मे व्यस्त वकीलों के पीछे कुछ वकील इंतजार में हैं। उन्हें जज को अपने मुकदमें के बारे में कोई छोटी मोटी बात कहनी है। वे इस इंतजार में हैं कि बहस के बीच यदि बहस करने वाला वकील अपनी फाइल में कुछ तलाशने के लिए रुके तो वे जज का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर अपनी बात कह सकें। इन सब के पीछे इजलास में एक टेबुल और लगी है वहाँ भी टाइपिस्ट टाइप कर रहा है। वहाँ भी एक गवाह के बयान लिए जा रहे हैं। वहाँ भी जिरह करने वाला वकील, विपक्षी वकील, उन के सहायक और मुवक्किल खडे हैं। इस जिरह की ओर तो जज का ध्यान हो ही नहीं सकता। वे जज से दूर हैं। वहाँ जो भी कुछ चल रहा है वह जज की निगरानी के बिना है। सब से पीछे एक बैंच और कुछ कुर्सियाँ हैं जहाँ कुछ वकील, कुछ मुवक्किल और कुछ गवाह अपनी बारी का इन्तजार कर रहे हैं।

दालत में चार-पाँच काम एक साथ चल रहे हैं, जज बहस सुन रहा है, रीडर मुकदमों में तारीखें दे रहा है। बीच बीच में कोई न कोई आ कर जज से निर्देश ले जाता है। इस के अतिरिक्त दो गवाहों के बयान एक साथ हो रहे हैं। गवाहों के बयान हो जाने पर टाइपिस्ट टाइप किए हुए बयानों के नीचे यह टाइप करेगा कि गवाह के बयान मेरे समक्ष मेरे निर्देशन में लिए गए हैं। जज उस पर हस्ताक्षर कर देगा। दिन भर अदालत ऐसे ही चलती रहेगी। कानून यह है कि किसी भी गवाह के बयान जज के सामने ही होने चाहिए, जज का ध्यान उस पर होना चाहिए, आवश्यकता पड़ने पर गवाह के व्यवहार के बारे में नोट भी बयान के साथ उसे अंकित करना चाहिए। लेकिन यह सब करना बहुत महंगा हो सकता है। जब अदालत में बहस चल रही हो तो गवाह का बयान नहीं होना चाहिए। बयान हो रहा हो तो बहस नहीं होनी चाहिए। बहस या बयान होते हुए किसी व्यक्ति को जज को व्यवधान नहीं पहुँचाना चाहिए। लेकिन सब हो रहा है।

कारण एक ही है कि हमारे पास एक तो पर्याप्त अधीनस्थ अदालतें नहीं हैं। जो हैं उन में से बीस से पच्चीस प्रतिशत में जज ही नहीं हैं। जजों की नियुक्ति प्रक्रिया इतनी बुरी है कि हमेशा इतनी अदालतें खाली पड़ी रहती हैं। जज के न होने से अदालत कोई काम नहीं कर पाती और पूरे स्टाफ का वेतन मुफ्त में देना पड़ता है केवल पेशियाँ बदलने के लिए। इस सब का असर अधीनस्थ अदालतों पर पड़ रहा है। अदालतों पर उच्च न्यायालयों ने मुकदमों के फैसले जल्दी करने के लिए दबाव बना रखा है। एक ओर तो अदालतों के कोटे निश्चित कर दिए गए हैं कि उन्हें हर तिमाही में कितने मुकदमे निर्णीत करने हैं। उस में भी अनेक मुकदमों की सूची भेज दी जाती है जिन में निश्चित रहता है कि कौन से मुकदमे उन्हें तीन माह और कौन से मुकदमें छह माह में निर्णीत करने हैं। जजों की सारी शक्ति इसी में लगी है कि किस तरह मुकदमों के निपटारे की संख्या और गति बढ़े। उन्हों ने हर काम की गति तीव्र कर दी है। न्याय की उन्हें चिंता नहीं रह गई है। वे केवल इस बात की चिंता करते हैं कि कैसे मुकदमों में निर्णय किया जाए। अब उन्हें पढ़ने की फुरसत नहीं है। वे न तो मुकदमे में ली गई साक्ष्य को ठीक से पढ़ते हैं, न कानून को ठीक से देखते हैं। वकीलों ने जो नजीरें पेश की हैं उन्हें तो पढ़ने तक की फुरसत नहीं है। उन का हवाला निर्णय में नहीं करते, करते हैं तो केवल नजीरों का पता लिख देते हैं। उन में क्या कहा गया है और उस का इस मुकदमे पर क्या असर है यह नहीं लिखते। अक्सर यह भी हो रहा है कि नजीर जिस वादी ने पेश की है और लिख दिया जाता है कि प्रतिवादी ने पेश की है। जब निर्णय आता है तो दोनों पक्ष अपना माथा ठोंकते हैं। जो हार जाता है वह सोचता है कैसे हार गया? हार का तो कोई कारण ही नहीं था, सारा मुकदमा उस के पक्षघ में था। जो जीत जाता है वह इस लिए माथा ठोकता है कि निर्णय अपील अदालत में नहीं टिकेगा। हो सकता है अपील न्यायालय उस में कोई निर्णय देने के बजाय उसे रिमांड ही न कर दे। हालात ऐसे बन गए हैं और बना दिए गए हैं कि अब अदालतें न्याय नहीं करतीं और उन में जज न्याय करने के लिए नहीं बैठते, वे केवल अपनी नौकरियाँ करते हैं, नौकरियाँ बचाते हैं और केवल ये सोचते हैं कि कैसे उन्हें जल्दी से जल्दी पदोन्नतियाँ मिलें।

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