वैदिक सभ्यता : भारत में विधि का इतिहास-2
|विकसित सिंधु सभ्यता के उपरांत प्राचीन भारतीय सभ्यता के प्रमाण के रूप में आर्यजनों द्वारा रची गई ऋचाओं का संकलन चार वेद हमारे सामने हैं। ये काव्य रचनाएँ, हैं जिन्हें कंठस्थ रखते हुए बिना लिखे भी अनेक पीढ़ियों तक अंतरित करना संभव था। विज्ञ इन ऋचाओं का रचनाकाल 4000 ई.पू. से 1000 ई.पू. तक का निर्धारित करते हैं। इन ऋचाओं को चार भागों में संकलित किया गया है। जिन्हें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद कहा जाता है। सब से प्राचीन ऋचाएँ ऋग्वेद में संकलित हैं। अनेक मनीषी जिन्हों ने इन ऋचाओं की रचना की ऋषि कहा गया। वेदों को ईश्वरकृत कहा जाता है जिस के कारण उन में वर्णित विधि को दैविक विधान और पवित्र कानून के रूप में स्वीकार किया जाता था। वेदों के उपरांत रचे गए ब्राह्मण ग्रंथ भी अनेक पुरा-विधियों के बारे में जानकारी देते हैं। वैदिक साहित्य से विधि के जो संकेत मिलते हैं वे इस प्रकार हैं-
सामाजिक विधियाँ
परिवार और विवाह – वैदिक साहित्य आर्यों के पूर्ण सुगठित और गतिशील सामाजिक जीवन के संकेत प्रदान करता है। पितृसत्तात्मक आर्य परिवार समाज की इकाई था। जिस में पिता परिवार का स्वामी, पालनकर्ता और गृहपति होता था। पिता के आदेशों का परिवार के सभी सदस्यों द्वारा पालन किया जाना अनिवार्य होता था। आर्यजनों में बहुपत्नित्व और बहुपतित्व प्रचलित था, लेकिन सामान्यतः एक पत्नीत्व और एक पतित्व को ही उचित और आदर्श माना गया था। विवाह का बंधन अटूट था। विवाह का उद्देश्य परस्पर कामनापूर्ति, संतानोत्पत्ति और गृहस्थ कर्तव्यों का निर्वाह होता था। विवाह विच्छेद अनुमत नहीं था और विधवा विवाह के लिए कोई प्रावधान भी नहीं था। आर्यों में बाल विवाह का प्रचलन नहीं था। कन्या का विवाह वयस्क होने पर ही किया जाता था और वयस्क होने पर स्त्री को विवाह के लिए वर चयन की आजादी होती थी। भाई-बहन और पिता-पुत्री के मध्य विवाह पूरी तरह से वर्जित था और धर्म-विरुद्ध कहा गया था।
उत्तराधिकार- आर्यजन मूलतः पशुपालक थे, उन का कृषिकर्म बहुत विकसित नहीं था। लेकिन पशुओं के रूप में उन के पास संपत्ति थी। संपत्ति सदैव उत्तराधिकार का प्रश्न उत्पन्न करती है। आर्यों ने उत्तराधिकार के नियम बहुत स्पष्ट बनाए हुए थे। संपत्ति का उत्तराधिकार सब से पहले औरस पुत्र को था, पुत्र के अभाव में दोहित्र (पुत्री के पुत्र) को था। यदि पुत्री एक मात्र संतान हुई तो आजन्म अविवाहित रहती थी तो उसे पिता की संपत्ति पर उत्तराधिकार था। दत्तक पुत्र की प्रथा थी लेकिन उसे संपत्ति का अधिकारी नहीं माना जाता था।
संपत्ति का अधिकार- वैदिक युग में चल संपत्ति के अधिकार को मान्यता प्रदान की गई थी, जो उन के पशुपालक होने के कारण उचित भी थी। हालांकि चौथे और अंतिम वेद अथर्ववेद में भूमि के क्रय-विक्रय और दान का उल्लेख भी है। लेकिन स्थाई संपत्ति का यह अधिकार कुल के निर्णय तक सीमित था लेकिन सामाजिक स्तर पर असमानता न रहे इस कारण से कुल के सदस्यों को कृषिकर्म के लिए व्यक्तिगत कृषिक्षेत्र प्रदान किए जाते थे।
कराधान – वैदिक युग में प्रजा को बलिहृत की संज्ञा प्राप्त थी। बलि का सीधा अर्थ राजा को स्वैच्छा से दिए गए उपहार और भेंटें हैं। लेकिन बाद में सभासदों के अनुमोदन पर प्रजा से उस की आय के सोलहवें भाग तक कर आरोपित करने का अधिकार राजा को प्राप्त होने का वर्णन प्
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16 Comments
बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी है, आभार।
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क्या है कोई पहेली को बूझने वाला?
पढ़े-लिखे भी होते हैं अंधविश्वास का शिकार।
बहुत बढ़िया लिखा है आपने! बहुत ही अच्छी और महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई! इस रोचक पोस्ट के लिए बधाई!
आपका अति साधुवाद!!
शानदार जनकारी उपलब्ध करा रहे हैं..जारी रहिये…सब नोट हो रहा है!
अपनी पसंद का क्षेत्र और विषय। बढ़िया रहेगी श्रंखला।
कल से पांच दिनों के लिए ब्लागचर्या से दूर रहूंगा। लौटकर पढ़ता हूं एक साथ।
रोचक व जानकारी वाला लेख। धन्यवाद।
घुघूती बासूती
शोधपरक आलेख। धन्यवाद।
ज्ञानवर्धक ! बिलकुल मेरे जैसे लोगों के लिए पोस्ट है. इस क्षेत्र में रूचि है अपनी. थोडा डिटेल में लिखिए. अभी तो आगे बहुत से 'काल' आने वाले हैं.
हमारी जडों से जोडने का अच्छा आलेख।
श्रीमती सुब्रह्मणियम जी शीघ्र स्वास्थ लाभ करें॥
@पंकज जी,
इसीलिए जब हिन्दू विवाह कानून में एक नया शब्द गढ़ना पड़ा Dissolution of marriage विवाह विच्छेद गढ़ना पड़ा। वहाँ न तो तलाक से काम चल रहा था और न डायवोर्स से।
ज्ञान वर्धक आलेख. शादी पर आपने टिप्पणी में जो बात कही, उसमें जोड़्ते हुये कहुंगा कि जहाँ अधिकांश धर्मों में विवाह एक कांट्रैक्ट रहा है, वहीं भारतीय समाजों में यह दो जनों ही नहीं दो परिवारों का सात सात जन्मों के रास्ते चिर काल का संबन्ध होता रहा है. शायद इसी लिये हिन्दी/संस्कृत में तलाक के लिये कोई शब्द नहीं ( बेहतर अजीत जी बता सकेंगे ). जो शब्द है वो है परित्याग, उसमें भी सम्बन्ध खत्म नहीं होते.
बहुत बढ़िया और उपयोगी श्रंखला लाये हैं, उम्मीद है बहुत लोग लाभान्वित होंगे !
भाटिया जी,
हिन्दू विधि में जो भारत में निवास करने वाले मुसलमानों, ईसाइयों, पारसियों और यहूदियों के अतिरिक्त सभी लोगों पर प्रभावी है मूलतः तलाक जैसी कोई स्थिति नहीं थी। विवाह को केवल इस जन्म का ही नहीं सात जन्मों तक का बंधन माना जाता था। 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम लागू होने के उपरांत ही विवाह विच्छेद का प्रावधान पहली बार हिन्दू विधि में लाया जा सका है।
हम पुलकित हुए. वैसे आजकल ब्लोगों पर जाना नहीं हो पा रहा है.. पत्नी ने अपनी टांग तुडवाली.
बहुत सुंदर व्याख्या की आप ने, दिनेश जी बाईबल के अनुसार जब शादी हि जाये तो जिन्दगी भर तलाक नही हो सकता धर्म के हिसाब से, वेसे तो यहां तलाह बहुत ज्यादा है, क्या हमारे वेदो मै भी कही इस बात का वर्णन है ? कि एक बार जिस से शादी हो गई वो बंधन आटूट है, यानि धर्म के हिसाब से कोई तलाक नही
इस अति सुंदर लेख के लिये धन्यवाद
वैदिक सभ्यता की अत्युत्तम जानकारी!
वैदिक काल में विधि की महत्वपूर्ण भूमिका थी . आपकी पोस्ट से जानने का मौका मिला . आभार