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राजा नंदकुमार की न्यायिक हत्या का मामला : भारत में विधि का इतिहास-32

भारत के विधिक इतिहास में राजा नन्दकुमार का मामला बहुत ही चर्चित रहा है। इस मामले ने गवर्नर जनरल और उस की परिषद के मतभेदों, न्यायालय व कानून की अधिकारिता के प्रश्नों, सुप्रीमकोर्ट की दूषित प्रक्रिया और भारतियों पर अंग्रेजी विधि के निरंकुश प्रवर्तन को उजागर किया। इस मामले ने गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स और सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इंपे की प्रतिष्ठा पर जो दाग लगाए वे आज तक भी नहीं साफ नहीं हो सके हैं। अपितु इस मामले पर जितनी शोध की गई है वे दाग और स्पष्ट होते जाते हैं। राजा नंदकुमार एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण था जिसे 1784 में वारेन हेस्टिंग्स के स्थान पर बर्दवान जिले का कलेक्टर नियुक्त किया गया था। अपने पद से हटाए जाने और एक भारतीय को उस के स्थान पर नियुक्त करने की टीस इतनी गहरी थी कि अवसर आने पर उस की कीमत राजा नन्दकुमार के प्राण ले कर चुक ली गई।
मामला इस तरह था कि बंगाल का गवर्नर बन जाने पर वारेन हेस्टिंग्स की परिषद के चार सदस्यों में से तीन उस के विरुद्ध थे। वे हेस्टिंग्स का अक्सर विरोध करते थे और हेस्टिंग्स था कि प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी प्रशासनिक नीतियों को लागू करने में जुटा रहता था। इसी समय परिषद के समक्ष हेस्टिंग्स द्वारा बर्दवान की रानी का पत्र प्रस्तुत हुआ जिस में यह आरोप लगाया गया था कि हेस्टिंग्स ने उन से रिश्वत प्राप्त की। परिषद के सदस्यों की इस पर चढ़ बनी। लेकिन हेस्टिंग्स ने खुद को बहुत अपमानित महसूस किया।  लगभग उसी समय 11 मार्च 1775 को राजा नन्दकुमार ने हेस्टिंग्स पर मीर जाफर की विधवा मुन्नी बेगम से उसे अवयस्क उत्तराधिकारी की संरक्षिका नियुक्त करने के लिए 3, 54, 105 रुपए की रिश्वत लेने का लिखित आरोप लगाया। स्वयं हेस्टिंग्स भी यह स्वीकार कर चुका था कि उस ने मुन्नी बेगम से डेढ़ लाख रुपए प्राप्त किए थे, किन्तु यह राशि रिश्वत न हो कर आमोद प्रमोद के लिए प्राप्त की गई थी। इस आरोप से हेस्टिंग्स की प्रतिष्ठा को  और गहरा आघात लगा।
रोप के मामले में परिषद के सदस्य मोन्सन ने नन्दकुमार को परिषद के सामने सम्मन करने का प्रस्ताव रखा जो हेस्टिंग्स के विरोध के बावजूद भी बहुमत से पारित हो गया। क्षुब्ध हो कर हेस्टिंग्स परिषद की बैठक छोड़ कर चला गया। नन्दकुमार ने परिषद के समक्ष मुन्नी बाई द्वारा उसे लिखे गए पत्र को रखा। हेस्टिंग्स ने कार्यवाही का विरोध करते हुए परिषद की निष्पक्षता को ही चुनौती दे डाली। वह अपनी ही परिषद के सामने स्वयं को दोषी पाकर प्रतिष्ठा को खोना नहीं चाहता था। परिषद ने क्लेरिंग की अध्यक्षता में निर्णय दिया कि हेस्टिंग्स उस पर लगाए गए आरोपों का दोषी है। परिषद ने हेस्टिंग्स को प्राप्त धन को कंपनी के खजाने में जमा कराने का निर्देश दिया। हेस्टिंग्स कार्यवाही के बीच ही इंग्लेंड चला गया। वहाँ उस के विरुद्ध रिश्वत के लिए महाभियोग लगाया गया जो सफल नहीं हो सका। इन मामलों के कारण हेस्टिंग्स के मन में राजा नंदकुमार के प्रति द्वेष और बदला लेने की भावना पैदा हो चुकी थी। वह अवसर की तलाश में था।
न्यायाधीश सर एलीजा इंपे
23 अप्रेल 1775 को कलकत्ता के व्यापारी मोहन प्रसाद ने राजा नन्दकुमार पर आरोप लगाया कि उस ने एक दस्तावेज की कूट रचना की है। यह आरोप लगाए जाने के तुरंत बाद ही राजा नन्दकुमार को बंदी बना लिया गया। इस घटना से परिषद में भी भारी उत्तेजना फैल गई क्
यों कि वे जानते थे कि राजा नन्दकुमार पर यह आरोप हेस्टिंग्स की शह पर ही लगाए गए हैं और मोहन प्रसाद केवल मोहरा है। परिषद के सदस्यों ने राजा नन्दकुमार को छोड़ने की मांग की जो स्वीकार नहीं की गई। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एलिजा इंपे की अध्यक्षता में बारह जूरियों की मदद से इस मामले का विचारण किया गया। नन्दकुमार पर आरोप लगाया गया कि उस ने 5 वर्ष पहले बुलाकीदास से लिए गए ऋण के बंधक विलेख में कूटरचना की थी। 8 जून 1775 को इस मामले की सुनवाई आरंभ हुई जो बिना किसी स्थगन के 16 जून 1775 तक चलती रही। सुप्रीम कोर्ट ने नन्दकुमार को कूटरचना के लिए दोषी मानते हुए इंग्लेंड की संसद में 1728 में पारित कानून के अनुसार मृत्युदंड का दंडादेश दिया। राजा नंदकुमार को 5 अगस्त 1775 को फोर्ट विलियम के नजदीक कुली बाजार में असंख्य भारतीयों की उपस्थिति में फाँसी पर लटका दिया गया।
स मामले ने भारत और इंग्लेंड में हलचल मचा दी। हेस्टिंग्स और मुख्य न्यायाधीश इंपे की घोर आलोचना होने लगी। निर्णय के पक्ष और विपक्ष में दलीलें दी जाने लगीं। किसी ने हेस्टिंग्स और इंपे को निर्दोष प्रमाणित करने और सुप्रीमकोर्ट के निर्णय को सही ठहराने के प्रयत्न किए तो किसी ने तथ्यों के साथ प्रमाणित किया कि राजा नन्दकुमार निर्दोष था और उसे सही सजा दी गई थी। निर्णय के समर्थकों का कहना था कि मामला स्वाभाविक परिस्थितियों में पेश हुआ था। जब कि आलोचकों का मत था कि यह हेस्टिंग्स का षड़यंत्र था। गवर्नर जनरल की काउंसिल के सदस्य सर फिलिप्स फ्रांसिस ने लिखा -नन्दकुमार कुख्यात और दुष्ट व्यक्ति हो सकता है लेकिन ईश्वर की सौगन्ध कि उस ने जो कुछ कहा था वह सच था। वह (हेस्टिंग्स) उसे फाँसी पर लटकाने की जल्दी में था।
हेस्टिंग्स और इंपे वेस्ट मिनिस्टर में सहपाठी और आपस में घनिष्ठ मित्र थे। इंपे के सु्प्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त होने पर बधाई देते हुए हेस्टिंग्स ने पत्र में लिखा था कि ” मैं संकट की स्थिति  पर नियंत्रण करने और उसे समाप्त करने के लिए आप से मित्रता तथा प्रेमपूर्ण सहायता की अपेक्षा रखता हूँ।”  नन्दकुमार को फाँसी पर लटकाए जाने के चार वर्ष बाद हेस्टिंग्स ने इंपे को एक पत्र में लिख कर अपने जीवन, संपत्ति और  प्रतिष्टा की रक्षा के लिए उस की सहायता पर आभार प्रकट किया गया था। इन्ही कारणों से कुछ लोगों ने  राजा नन्दकुमार की फाँसी को न्यायिक हत्या भी कहा।
स मामले में विधि के अनेक प्रश्न उठ खड़े हुए थे। सुप्रीम कोर्ट की अधिकारिता, विधि की प्रवर्तनीयता, न्यायालय की प्रक्रिया, न्यायालय का पूर्वाग्रह से युक्त हो कर गवर्नर जनरल का अंधसमर्थन आदि ऐसे प्रश्र हैं जो भारत के विधिक इतिहास के अध्ययन के लिए आवश्यक हैं। हम अगली कड़ी में इन पर विचार करेंगे।
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